‘‘गणतंत्र में गिड़गिड़ाता व्यंग्यकार’’

सुनील जैन राही 

एम-9810 960 285

गिड़गिड़ाने वाले व्यंग्य के पात्र नहीं होते, लेकिन वे व्यंग्य लिख सकते हैं।  गिड़गिड़ाकर रंग बदलने वाला भी व्यंग्य लिख सकता है। रंग बदलना हितार्थ है, फैशन नहीं। गणतंत्र में हित के लिए सब कुछ संभव है। गणतंत्र में जो गिड़गिड़ाता है सत्ता उसे पास लाती है। आओ गणतंत्र में सब मिलकर गिड़गिड़ाये, नया कुछ लिखें। 

गणतांत्रिक व्यवस्था में व्यंग्यकार हमेशा गिड़गिड़ाया है। वह चुप रह कर हो या पलायन करके। जो चुप न रह सका, वह पलायन कर गया, जो पलायन न कर सका, वह चुप रह गया। यह व्यंग्य के स्वर्णकाल के कालिख लगे पन्नों की बात है। वैसे देखा जाए तो स्वर्णकाल हो या कोयला काल फिलवक्त गिड़गिड़ाने की परम्परा से इन्कार नहीं किया जा सकता। सत्ता परिवर्तन से रंग परिवर्तन होता है, जो नहीं कर पाते हाशिये पर टिक जाते हैं। आदमी हो या लेखक बाजार के साथ चलता है। लेखक ज्यादा समझदार है, इसलिए बाजार के साथ खड़ा हो जाता है। लेकिन बाजार कहां है? बस जैसे-तैसे नाम मिल जाए। नाम से मंच और माला तय है। बार-बार माला और मंच सम्मान का आधार है। व्यंग्य का बाजार कुलांचे मार रहा है। 

जैसे-तैसे, कैसे भी हो एक व्यंग्य संग्रह आ जाए। मानवीयता, पीड़ा, सामाजिक सरोकार हों या न हो बस हास्य और तर्कहीन विवाद जरूरी है। सत्ता का मिला जुला विरोध हो। भाषा में प्रखरता हो, बाजार में सिक्का जम सके। खैर कुल-मिलाकर व्यंग्यकार तैयार हो गया। भूमिका से चरण वंदना शुरू होती है। भूमिका दाता 10-15 चक्कर न लगवा ले, उसका लेखन सार्थक कैसे माना जाए?

कुछ ढीट प्राणी होते हैं, जो भूमिका लिखवाते नहीं। अपनी बात कही और पाठक को परोस दी। अरे भाई इतने गोबर के चोथ पड़े वे किस दिन काम आएंगे? बुरा लग गया। अगर लग गया तो अभी व्यंग्यकार शेष है? भूमिका दाता भी देखता है-पासंग में कितना दम है? बाद में भूमिका घिसाई। अरे भैये अच्छी भूमिका से लेखक महान हो जाता तो संख्या अनगिनत होती। 

बहरहाल ….एक महती कार्य तो निपट गया। बड़े नाम के साथ छोटू चाय वाला चिपक गया। प्रकाशक भूमिका दाता देखकर पटान में आ जाएगा। प्रकाशक तेल निकालने वाला खम्बा है, जिसके घेरे में आंखों पर पट्टी बांध कर घूमना पड़ता है। संग्रह की कवर पट्टी खुलने के बाद विराम लगता है।   

पटटी खुलते ही सोशल मीडिया पर धमा-धमा। एक ग्रुप से लेकर अनेक ग्रुप तक। फेस बुक से लेकर वट्सएप तक। गली का कोई कुत्ता न बच जाए, जिसे मालूम न पड़े कि व्यंग्य संग्रह आ गया। धन्यवाद ज्ञापन के लिए आॅफिस से दो दिन का आकस्मिक अधिकार की श्रेणी में आता है। साहब से लेकर बबुआइन तक संग्रह देख सोच में पड़ जाते हैं..अब का कहें…ई साला तो बागवान का अमिताभ बच्चन हो गया? 

संग्रह के बाद विज्ञापन और विज्ञापन के बाद किसी बड़े समीक्षक की खोज, भारत एक खोज से कम नहीं? समीक्षक से उम्मीद-भैया पहली किताब है, ऐसा मत लिख देना कि जिससे सीधे डस्ट बिन में चली जाए। समीक्षक कौन सा हार्ड काॅपी होता है। वह भी तो साफ्ट काॅपी से बना होता है। फिर …समीक्षा और विमोचन साथ-साथ ?  

बिटिया की पढ़ाई पर जितना खर्च नहीं किया, उससे ज्यादा विमोचन भीड़ जुटाई में खर्च कर दिया। जिसे बुलाया उसका थर्डक्लास एसी का किराया। हाॅल पिताश्री का तो है नहीं? हलवाई भी साला नहीं? रिश्तेदारों को रिटर्न गिफ्ट देना है। लड़की की शादी होती तो देकर जाते, लेकिन अब तो ‘बागवान’ से लेने का अधिकार बनता है। सबकी निगाहें रायल्टी पर। रायल्टी तो तब बनेगी जब प्रकाशक ने छापी हो? कुल-मिलाकर दस प्रतियां। अब नहा ले या निचोड़ ले। 

बहरहाल प्रशंसा सुख सर्वोपरि होता है। पहले गिड़गिड़ाने के साधन सुलभ नहीं थे, अब बहुतायत में उपलब्ध हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गिड़गिड़ा सकते हंै। गिड़गिड़ाहट दूसरे के माध्यम से पहुंचा सकते हंै। गिड़गिड़ाना गड़गड़ाहट के साथ कला बनकर उभरी है। अच्छी तरह से गिडगिड़ाने से अप्रत्यक्ष लाभ की दशा बनती है, जो माला-मंच और बाद में सम्मान में सहायक हो जाती है। छपाई से लेकर विमोचन तक व्यंग्यकार न होकर स्टेण्डर्ड भिखारी बन जाता है। अनुनय….विनय… गुहार….कोई सम्मानजनक पुरस्कार मेरी झोली में डाल दो? 

झोली भरते ही व्यंग्यकार शिखर पर। गणतंत्र में जो शिखर पर होता है, वह भूत/भविष्य/वर्तमान की उस सत्ता का विरोध नहीं करता, जिससे शिखर-जोशी मठ बन जाए। हर तंत्र में व्यंग्यकार गिड़गिड़ाता है। आओ मिलकर सुर में गिड़गिआएँ, जो सबको भायें।

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