रमेश कुमार ” संतोष”

दीवार पर पोस्टर

चिपकाये जाते हैं

फिर उतार भी दिये जाते हैं

फिर लगाये जाते हैं

फिर उतार दिए जाते हैं

दीवारों को नुमाइश घर बना दिया गया

और

शहर को इतिहासिक

सड़क पर जानवर थे|

वह भेडिये है?

शेर है?

या

गिद्ध?

शहर को नोचते हुए

उनकी आंखों में

दीपावली की रोशनी सी

चमक चमकती है… .!

सड़क में डरी सहमी

आंखों में पतझड़ लिए

हड्डियों के पिंजर

इधर से उधर

उधर से इधर

भाग रहे है चीख रहे हैं

अपने को  बचा रहे हैं

क्या वह इंसान थे?

धरती गंदमी थी

लाल कैसे हो गई?

फसलों की हरियाली

मुर्झा कैसे  गई?

फैक्ट्रियों की चिमनियों का धुआं

जहरीला कैसे हो गया?

सड़क का तारकोल

लाल कैसे हो गया?

हवा में मांस की गंध

क्यो आती है???

मानव चीखा था

मानव भूखा था

वह चीखा चिलाया….

वह चीखे

एक से लाखों में बदल   गई

चीखो ने राजधानी की दीवारों को हिला दिया

राजा की आखें खुली

हवा को नींद की गोलियों

से सुला दिया गया|

चीखें सोने लगी

सड़क उदास होने लगी

दीवारें  गुमसुम रोने लगी

जो बेहोश हो गया

उसे छोड़ दिया गया

जो होश में था

उन्हें पकड़ लिया गया

जिस पर गोली का असर नहीं हुआ

उसे धांतु की गोली से उडा दिया गया|

आकाश के बादल डर गये

मशीनों की आवाज़ तेज़ है गई

आफिसर की रफ्तार तेज हो गई

घर बनने लगे

घर बिखरने लगे

देश की फिल्म में डाकुओं का दृष्य हावी हो गया

शहर के अखबार मर गए थे

कुछ चीखों को होश आई

वह फिर चीखने लगी

फिर ज्यादा फिर ओर ज्यादा

उन चीखों ने

राजधानी को काली छाया से

मुक्त करवा लिया

राजधानी में एक फिल्म के पोस्टर उतार कर

दूसरी फिल्म के लगा दिए गए

शहर हंसने लगा

फिल्म  नई थी

अदाकार तो वही पुराने थे!

शहर पर फिर से पोस्टर चिपकाये जाने लगे

फिर से उतारे जाने लगे

शहर की दीवारें इतिहास बनने लगी

फिर से   ….फिर से…फिर से…??????

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रमेश कुमार संतोष

85 निमला कालोनी

छहराटा अमृतसर(पंजाब)

9876750370