कविता/कहानियों में ‘दम’ होता तो हम सदियों तक गुलाम नहीं रहते। हमारे देश जैसा बहुमूल्य साहित्य (प्राचीन और आधुनिक) भला और कहां है? दुनिया कवियों से नहीं, बाहुबलियों से बदली है। इतिहास गवाह है कि राज हमेशा तलवार/तोप ने ही किया है, कलम ने नहीं। कुछेक अपवादों को छोड़ कलम के सिपाही भी राज्याश्रय में ही सुख-चैन का भोग करते रहे हैं। अगर साहित्य-लेखन से विश्व में शांति स्थापित होती या हुई होती तो तमाम देशों को अपनी सुरक्षा के लिए सेना पर करोड़ों/अरबों की राशि खर्च नहीं करनी पड़ती। यह अकूत धनराशि आराम से जन-कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च होती और धरती कब की स्वर्ग बन गई होती। मगर ऐसा हो नहीं रहा।
सिकंदर से लेकर आज तक जितने भी छोटे-बड़े युद्ध हुए हैं, उनसे जन-धन की कितनी हानि हुई है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कश्मीर समस्या को ही लें। इस समस्या को लेकर अथवा इसका समाधान ढूंढ़ने के लिए अब तक जाने कितनी फिल्में बनी हैं, जाने कितनी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां, कवि-सम्मेलन, मुशायरे, पैनल-चर्चाएं आदि हुए हैं! साहित्य भी खूब लिखा गया है। मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात है। समस्या जस-की-तस बनी हुई है।
दरअसल, मनुष्य ऊपर से जितना सभ्य दिखता है, भीतर उसके अब भी आदिम-मानव की पाश्विक प्रवृत्ति छिपी हुई है। उपनिवेशवाद, विस्तारवाद, आतंकवाद आदि इसी पाश्विक प्रवृत्ति के विविध मुखौटे/आयाम हैं। लेखक कोशिश तो करता है कि वह अपने ‘कर्म’ से मनुष्य/समाज में पाश्विक प्रवृत्ति के स्थान पर सौंदर्य-बोध को जगाए, मगर ऐसा हो नहीं पा रहा। क्यों नहीं हो पा रहा, इसका उत्तर हमें ढूंढ़ना होगा।
एक बात और है। कौन नहीं जानता कि जो अमीर देश प्रजातन्त्र अथवा शांति के मसीहा बनते दिखते हैं,वही हथियार बनाते हैं और गरीब देशों को लड़ाते हैं ताकि वे उनके हथियार खरीदें।आपस में लडने वाले देश अमीर देशों की यह कूटनीति समझ नहीं पाते।अमेरिका,रूस,फ्रांस,इटली,जर्मनी,चीन जैसे विकसित देश ही अस्त्र-शस्त्रों के बड़े व्यापारी हैं।उनका माल तभी बिकेगा जब विश्व में अशांति छाई रहेगी।अन्यथा उनका माल पड़ा-पड़ा सड़ न जाए।क्या आपने कभी सुना है कि छोटे-छोटे देश यथा :बंगलादेश,बर्मा,हांगकांग,लेबिनान,अफगानिस्ताननेपाल,श्रीलंका,मालदीव,उरुग्वे,यमन,भूटान,नाइजेरिया,केनिया,यूगांडा आदि देश हथियार बना रहे हैं।ये देश बस लड़ते हैं और अमीर देश इनको हथियार मुहैया कराते हैं।हथियारों का कारोबार बड़ा ही लाभप्रद कारोबार है।बताते हैं कि एक कालशनिकोव राइफल इस समय 1500 अमरीकी डॉलर में बिक रही है यानी लगभग 75हज़ार रुपये की।इसी तरह एक फाइटर ऐरक्राफ्ट तो करोड़ों में बिकता है।गूगल सब बताएगा।हमारा देश हालांकि छोटे-मोटे हथियार तो बनाता है मगर अति आधुनिक अस्त्र-शस्त्र हमें भी बाहर से ही खरीदने पड़ रहे हैं।हथियारों के सौदागर कभी नहीं चाहेंगे कि विश्व में शांति बनी रहे।‘अहिंसा परमो धर्म:’ का ज़माना लद गया शायद ।
डा० शिबन कृष्ण रैणा
सम्प्रति दुबई में