संजीव-नी।

ग़ुज़री तमाम उम्र उसी शहर में कोई जानता न था

वाक़िफ़ सभी थे,पर कोई पहचानता न था..

पास से हर कोई गुजरता मुस्कुराता न था,

मेरे ही शहर में लोगों को मुझ से वास्ता न था।

मेरे टूटे घर में कोई दरवाजा ना था

बावजूद इसके कोई झांकता न था।

फकीर घूम घूम कर उपदेश देता रहा,

शहर के लोगों को उससे नाता न था।

शहर भी वही लोग भी है परिचित भी वही,

वक्त पर कोई साथ देगा इसका मुझे मुगालता न था।

इस भरी दुनिया में सब के सब हैं यहां,

पर किसी क़ा किसी से रिश्ता न था।

तेरी मेरी नहीं सबकी कहानी है यह,

खमोश रहने के अलावा कोई रास्ता न था।

खामोशी से मेरी हमेशा बातें होती रही है,

आवाज मेरी जिंदगी का कभी कोई रिश्ता न था।

संजीव ठाकुर, रायपुर छत्तीसगढ़, 9009 415 415