इस साल देश पर मौसम के कहर से भारी नुकसान

सीएसई की रिपोर्ट में खुलासा: 3000 से ज्यादा मौतें
नई दिल्ली । 2024 के पहले नौ महीनों में भारत में मौसम की भयानक मार देखने को मिली है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 के पहले नौ महीनों में भारत के 93 प्रतिशत दिनों में बेहद खराब मौसम रहा है। 274 दिनों में से 255 दिन देश के विभिन्न हिस्सों में गर्मी, सर्दी, चक्रवात, बाढ़, बारिश और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारी जन-माल की हानि हुई है। इन घटनाओं में 3,238 लोगों की जानें गईं हैं, वहीं 2.35 लाख से ज्यादा घर बर्बाद हो गए हैं। इस दौरान 32 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर फसलें बर्बाद हो गईं हैं। रिपोर्ट में 2023 के मुकाबले 2024 में मौसम की मार को ज्यादा घातक रही है। पिछले साल देश में 273 में से 235 दिन खराब मौसम के कारण परेशानी का सामना करना पड़ा था, जिसमें 2,923 लोगों की मौत हुई थी और 18.4 लाख हेक्टेयर जमीन पर फसलें नष्ट हुईं थीं।
मध्य प्रदेश केरल और असम में मौसम का कहर
रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 में मध्य प्रदेश केरल और असम जैसे राज्यों में मौसम ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। मध्य प्रदेश में 176 दिन ऐसे थे जब मौसम ने कहर बरपाया, जबकि केरल में सबसे ज्यादा 550 मौतें हुईं। महाराष्ट्र में 142 दिन मौसम का कहर देखने को मिला, यहां फसलों का 60 फीसदी हिस्सा तबाह हो गया। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि यह रिपोर्ट सिर्फ एक चेतावनी है और यह दिखाती है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नजरअंदाज करना कितना भारी पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन से निपटने प्रभावी कदम उठाने की जरूरत
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावी कदम उठाए बिना, प्राकृतिक आपदाओं के संकट में और भी वृद्धि हो सकती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि जनवरी 2024 का महीना 1901 के बाद से भारत का 9वां सबसे शुष्क महीना रहा, जबकि फरवरी में 123 वर्षों में दूसरा सबसे अधिक न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया। मई में चौथा सबसे अधिक औसत तापमान और जुलाई, अगस्त तथा सितंबर में 1901 के बाद से सबसे अधिक न्यूनतम तापमान रिकॉर्ड किया गया। यह रिपोर्ट गंभीर संकेत है कि देश में मौसम की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, जो जलवायु परिवर्तन के बढ़ते संकट को दर्शाती है। सीएसई के विश्लेषकों ने कहा कि मौजूदा आंकड़े वास्तविकता से कम हैं, क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति और फसलों के नुकसान के आंकड़े पूरी तरह से नहीं मिल पाते हैं।