काव्य रचना

मैं एक बावरी सी छोरी
निकल पड़ी अपने धुन में..
जग क्या कहियां ये भान नहीं 
बस मस्त मगन अब चलती जाऊँ
स्वप्न उगाऊं नयनो में
नदिया के सम बस बहती जाऊँ
सागर तक मेरा अंत नहीं
भाप बनूं उड़ जाउंगी
उकेरुंगी घनघोर मेघ मैं
मरुक्षेत्र में जल बरसाउंगी
इतनी भी चाह नहीं की 
चदरी छोटी पड़ जाये
चईला तापें ख्वाब़ हैं मेरे
देखो न कैसे मुसकाते हैं
टूटे भी तो नये हुये
अखियन में फिर बस जाते हैं
कभी कभी जब जंजीरों ने
पायल बन भरमाना चाहा
तब स्वप्न बने थे बोल मरम के
मन ने एकांत को गाना चाहा
फिर करताल लिये संत्रासों की
गीत सजाते जोगन सी
औ दौड़ पड़ी यूं अलख़ जगाते
अपने चुने हुये पथ पर
जो जैसा है सब अच्छा है
प्राण नहीं अब कैद हैं मेरे
घर के पिंजरे की मुनमुन में
हाँ, निकल पड़ी अपने धुन में…

            #आकृति_विज्ञा_अर्पण
मंच संचालिका व कवयित्री 
गोरखपुर उत्तर प्रदेश
9651435448

मैं घोषित करती हूं कि यह मेरी मौलिक रचना है।