कल मुझसे नगर के ही
एक चौराहे पर
मुलाकात हो गई
अतीत के दानव से।
चाय के प्याले से उठते हुए भाप में
धीरे धीरे अक्स उभरा,
गढन नाक नक्श
क्रमशः सुधरा।
पूछा मैने-
कौन हो तुम भाई
तुम्हे यहां प्रकट होने की
जरुरत क्यौ आयी?
हँसा! जबडे फैले,
खूँखार तेंदुए सदृश्य
पैने लम्बे दाँत
अधर सीमा तोड, बाहर निकले।
बोला-
पहचाना मुझे
तुम्हारा बीता हुआ कल,
पर तुम्हे मुझे याद करने की जरुरत ही क्या?
क्या ढलने के बाद
जाम की कोई अहमियत होती है।
कार्य ब्यापारो से आवाक् मैं
सहसा चौक कर पूछ बैठा
कि मुझे ये बताने का औचित्य ही क्या?
जो बीता
उसे बीता ही रहने दो,
इस जमाने में बहुत गम है
नये घाव ही सहने दो।
सुनते ही वह सारी सीमाए तोड
स्वरो में गगन गर्जन रोर
नही!
मैं तुम्हारा अतीत ही नही
नयी डायरी का भी पन्ना हूं
बिल्कुल नया बन्ना हू,
तुम भले भूलना चाहो
पर मैं अमिट इतिहास
तुम्हारे मिटाने से मिटने वाला नही
तुम भले मिट जाओगे
पर मैं नही।
तुम्हारा कल का मूल्यांकन
प्रतिमान् मै ही हू
अनचाहे ही तुम्हारे लिखे शब्द
मेरे पृष्टो पर ही
अंकित होगें
अच्छा चलता हूं।
भयभीत कंपायित मैं
सोचता सहमता
फिर अपने ठौर की ओर
नये अतीत, भब्य अतीत
की तलास में लौट आया।।
मनोज द्विवेदी
वाराणसी