आज फूलों पर तितलियों को,
मंडराते देखा,
रंग-बिरंगी तितलियां,
मन हर्षित हो उठा।
पर कुछ सूखे,पिचपिचे,
मुर्झाए फूल भी थे,
जो अलग-थलग पड़े थे,
उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था,
न भंवरे ही गुंजार कर रहे थे और
न ही तितलियां मंडरा रहीं थीं।
मैं सोच में पड़ गई ऐसा क्यों?
तभी मां का कहा याद आ गया कि
उगते सूर्य को सभी अर्घ्य देते हैं,
परन्तु अस्त होते समय
कोई प्रणाम नहीं करता।
वही स्थिति मानव की भी है,
जब तक सुख-समृद्धि है तब तक ,
उनकी प्रशंसा के पुल बांधे जाते हैं
पर जब किसी कारणवश
उनका पतन होने लगता है,
तो अपने ही मुंह फेरकर,
किनारा कर लेते हैं।
यही जीवन की गति है,
फिर भी हम अपने
आप पर इतराते हैं,
हर पल तू -तू ,मैं -मैं की
भावना से भरे रहते हैं।
परम सत्य जानते हुए भी ,
उसी से अनजान
बने रहना चाहते हैं।
अनुपम चतुर्वेदी, सन्त कबीर नगर,
उ०प्र०