ठहर गया

बातों का ख़िज़्र की वो 

कहाँ सब असर गया

है ख़ुदपरस्ती हावी 

कि बेजा बशर गया 

जिसकी घनेरी छांव में 

सब बैठते थे यां,

कंक्रीट की हवा से वो 

घायल शजर गया ।

यादों के उस मुहाने को 

जब छूआ मैने,तो

बहता हुआ वो वक़्त भी 

जैसे ठहर गया ।

नज़रों से उनकी उड़ 

चले होशो हवास ही,

इल्ज़ाम फिर भी इसका 

मेरे दिल ही पर गया ।

कुछ काम ही न कर 

सकी तद्बीर भी कोई,

वो हाल मर्ज़े इश्क़ मेरे 

दिल का कर गया ।

हम तो निबाहते रहे 

तहज़ीब इश्क़ की,

ख़ंजर चला भरोसे पे,

ज़ालिम किधर गया ।

समझा रहे थे सब कि है 

ये ज़ह् र इश्क़ भी,

‘ रचना ‘ ये अब तेरी 

रग़े जां में उतर गया ।

रचना सरन,

न्यू अलीपुर, कोलकाता