प्रीत के सम्मान में

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प्यार में पागल पतंगा , है डटा उत्सर्ग को |

चाहता है शीघ्रता में,जा रहा ज्यों स्वर्ग को ||

नेह एकल ही सही पर, प्राणपण से था जुटा |

प्रणय का देकर निवेदन,स्वयं ही जैसे लुटा ||

क्या बतायें आपको अब , बावरा ऐसा अड़ा |

अंततः उस नेह का यों , मोल देना ही पड़ा ||

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दीप समझा ही नहीं था , बाबरे के सामने |

है बुलाया शीघ्र जिसको, रामजी के धाम ने ||

प्यार अंधा है सदा से , ये सुना था दीप ने |

पर यह घटेगा कभी, सोचा नहीं था दीप ने ||

नेह का वह दर्द प्यारा, पी रहा है आजतक |

रात से लड़ते हुए भी , जी रहा है आजतक ||

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प्रणय का पहला निवेदन, भूलता कोई कभी |

याद होतीं आदमी को,नेह की तिथियाँ सभी ||

दीप प्रणयी था नहीं पर,व्यग्रता उस नेह की |

देह से ऊपर रही है , उस पतंगी देह की ||

जल रहा है अनवरत वह,प्रीत के सम्मान में |

एकनिष्ठा दीप की है, आजतक प्रतिदान में ||

— प्रभु त्रिवेदी