रेत के महलों का जीवन

रेत के महलों सा ये जीवन,पता नहीं कब ढह जाए,

प्रतिपल फिसल रहा मुट्ठी से,पता नहीं कब झर जाए।

भावों की भीनी खुशबू ये,निर्मल नेह का निर्झर है ,

चलता है निर्बाध गति से, सपनों का ये सागर है।

खींचे चित्र सुनहरे हमने,पता नहीं कब मिट जाए,

रेत के महलों सा ये जीवन,पता नहीं कब ढह जाए।

चंचल चितवन के डोरे तो, कातर नयनों के धारे है,

मोह के कांटो में उलझे ये,सूरज चंदा और तारे हैं।

बिना तेल के दीपक जैसा,पता नहीं कब बुझ जाए,

रेत के महलों सा ये जीवन,पता नहीं कब ढह जाए।

खुशियों में कांटे बबूल के,बिना इजाज़त उग आते हैं,

अपनों में भी अनजाने से, साथी कैसे मिल जाते हैं,

हाथ पकड़ संग बढ़ते जाते,पता नहीं कब गिर जाए,

रेत के महलों सा ये जीवन,पता नहीं कब ढह जाए।

रेत के महलों सा ये जीवन,पता नहीं कब ढह जाए,

प्रतिपल फिसल रहा मुट्ठी से,पता नहीं कब झर जाए।

सीमा मिश्रा,बिन्दकी,फतेहपुर