गुंजन

धड़कनों की गीत पर

खामोशी की रीत पर

गूंजती हुई  गुंजन की

है फिर भोर कहाँ

अवगुंठन की ओट में

अंतस जो पुकारती

बरस गया बादल

है फिर शोर कहाँ

सुबह की दिखी लाली

आंखें थी रक्तिम

धूंध की घटा में

है फिर धूप कहाँ

घुमड़ रहा था बादल

अपनी ही धून में

पल दो पल पर

है फिर जोर कहाँ

हवा का तेज झोंका

आकर जो टकरा गया

टूटा कुछ भीतर तक

है फिर चोट कहाँ।

सपना चन्द्रा

कहलगाँव भागलपुर बिहार