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अब किसी से क्या उम्मीद रखा जाए ।
जो हम पकाए हैं उसी को चखा जाए ।
मान लिया उम्मीद पर ही टिकी है दुनिया ।
पर कहीं न कहीं स्वार्थ में बिकी है दुनिया ।
उम्मीद उनसे रखूँ जो भरोसा तोड़ जाते हैं ।
पतवार छीन कर मजधार में छोड़ जाते हैं ।
उनको लेकर मेरे मन में नहीं है कोई मलाल ।
बुरा न माने तो बस पूछना चाहता एक सवाल ।
उम्मीद थी की वही अच्छे दिनों को लाएँगे ।
विदेशों से देश के काले धन को छीन लाएँगे ।
उम्मीद ये भी नहीं थी की अकेले छोड़ जाएँगे ।
पूँजीपतियों के चंगुल में फँस कमर तोड़ जाएँगे ।
उनको बुरा कहें भी तो मँहगाई कम नहीं होगी ।
केवल आश्वासनों से भूख की जमीं नम नहीं होगी ।
अब उन्हें आगे आकर कुछ न कुछ करना होगा ।
गहरे होते हमारे जख़्मों पर मरहम धरना होगा ।
सुना है उम्मीद को मारने से इंसान मर जाता है ।
उम्मीद को ले के चले तो वैरणी तर जाता है ।
उम्मीद मन में कुछ कर गुजरना सिखाती है ।
आशा के दीप से अंधेरे में मंज़िल दिखाती है ।
उम्मीद को साथ रख कठोर मेहनत करते रहें ।
दुख में भी बसंती हवा के साथ-साथ बहते रहें ।
अपने लिए नहीं अपनों के लिए दुख सहते रहें ।
परोपकारी बन हरपल बस राम-राम कहते रहें ।
एम•एस•अंसारी”शिक्षक”
गार्डेन रीच
कोलकाता