उस आफिस के प्यून ने आकर जैसे ही कहा गुप्ता साहब, आपका नंबर आ गया मैडम जी आपको बुला रही है। इतना सुनते ही मुझे जैसे पंख लग गए। मैंने फौरन अपना सब सामान समेटा फाइल उठाई और सीधा मैडम जी के केबिन की ओर भागा। क्योंकि मुझे आते-आते पूरे चार दिन हो गए, किंतु मेरा नंबर ही नहीं लग पा रहा था। फिर आज तो जैसे भगवान मिल गए हो।
जैसे ही केबिन में घुसा बेहद संजीदा,सौम्य किन्तु भावहीन चेहरे पर जैसे ही नजर पड़ी मेरे पंख न जाने कहां गिर गए मैं जहां था बस वही खड़ा रह गया और वह महिला नजरें नीची किए फाइलों पर हस्ताक्षर करती रही मैं जड़वत अपनी जगह पर खड़ा रहा और ना जाने कब तक खड़ा रहता, यदि उसने मुझे पुकारा ना होता। उसने बिना मेरी ओर देखे ही कहां आप काफी देर से खड़े हैं। बैठ जाइए बस दो-चार फाइलें और बची है, फिर आपकी समस्या पर विचार करते हैं।
मैं जैसे नींद से जाग गया और वही रखे सोफे पर निढाल सा पसर गया। मेरे चेहरे पर पसीना बह रहा था। चेहरे पर न जाने कितने भाव आते रहे जाते रहे। मैं बस उस महिला की ओर निहारता रहा। कुछ समय पश्चात उसने जैसे ही मेरी ओर देखा, उसका सपाट चेहरा, कुछ सोचने पर विवश हो चला। अचानक उसने अपना चश्मा उतार कर अपने आंखों से बह निकले आंसुओं को सुखाने के लिए रुमाल रख लिया। मैं और वह दोनों एक दूसरे को देखते रहे। फिर मैंने ही उस मौन की सीमा को तोड़ा जो हमारे बीच ना जाने कितने वर्षों से खींचती चली आ रही थी।
मैंने बेहद ही धीरे से पुकारा प्रभा तुम। तुम हो हमारी पीएफ कमिश्नर? अरे यार कितने वर्षों बाद!! तुम्हारी शादी तो बड़े ठाकुर के बेटे से हुई थी? फिर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत है? तुम कहां रहती हो? परिवार में कौन-कौन है ?और यह सब क्या हाल बना रखा है? अभी से सत्तर वर्ष की महिला जैसे आचरण ओढ़ रखे हैं। और मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा है, कि तुम वही मेरी प्रभा, जिसके हंसने से ही मेरी हर सुबह होती थी। कितनी चुलबुली थी, मेरी प्रभा क्या हुआ? जैसे एक ही सांस में सारी बातें कह गया और मैं भी एक ही सांस में इतने सालों का हाल जानने के लिए मचल उठा। पर जब उसने मुझे यह कह कर कि अभी सिर्फ काम की बातें करते हैं, बाकी की बातों के लिए उम्र पड़ी है, तो मैं अपनी ही नजरों में छोटा बन गया। तब मुझे उसकी पोस्ट व कुर्सी का प्रभाव समझ में आया। मैंने अपनी फाइल उसके आगे कर दी और बेहद ठहरे हुए शब्दों में कहा, इस पर आपके हस्ताक्षर चाहिए। यदि यह हो जाते तो मुझे मेरे फंड को निकालने में कोई परेशानी ना होगी। उसने बस यही कहा आप इसे रख जाइए। मैं इसको देखकर अपनी साइन कर दूंगी।
आप कल बड़े बाबू से लेते जाना और उसने नमस्कार की मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।
मैं उसके इस व्यवहार से अपरिचित था। फिर मुझे लगा उसका इतना बड़ा पद है तो शायद यहां कोई बात नहीं करना चाहती, परंतु मेरी आशा के विपरीत वह नमस्कार करके पुनः अपने काम में लग गई और मैं भारी मन से अपने कदमों को उठा उठा कर रखने लगा। मैं बड़ी तेजी से उस माहौल से दूर भाग जाना चाहता था। और मैंने उस पर सफलता पा भी ली। मैं न जाने कितनी दूर तक चलता रहा बस चलता रहा। और एक बगीचे में आकर बैठ गया, बैठ क्या गया लेट गया और लेटे-लेटे एक हाथ सिर के नीचे और एक सिर के ऊपर रख, आंखें बंद कर अतीत के उन सालों से एक बार फिर हाथापाई करने लगा, जिन्हें मैं सपने में भी देखना नहीं चाहता था। किंतु आज ना जाने क्यों प्रभा की प्रभा बुझी बुझी दिखी तो मन ने फिर उन काले सायों से दोस्ती करने की हिम्मत जुटा ली। और मैं काफी वर्षों पहले की अतीत की राह पर चलने लगा।
मैं शहर से गर्मी की छुट्टियों में अपने गांव आया हुआ था। मैं पढ़ाई के लिए शहर में अपने बड़े भाई व भाभी के साथ रहता था। छुट्टियों में ही मुझे मां बापू से मिलने भेजा जाता और दो महीने की छुट्टियों में मैं पूरे बरस जी सकूं, इतनी सांसे अपने में समेट लिया करता था। वहां मेरे बचपन की सखी, मेरी सहेली मेरी प्रभा रहती थी। मैं उस वक्त बीस वर्ष का नवयुवक था और वह सौलह वर्ष की कमसिन कली। ठाकुर परिवार की इकलौती बेटी थी। विलासों में पली-बढ़ी नाज नखरे वाली और मैं मध्यम वर्गीय परिवार का तीसरे नंबर का बेटा। पर मेरी और उसकी दोस्ती में कभी भी दौलत की दीवार नहीं आती। वह, मैं जब तक गांव में रहता, मेरे साथ ही खेलती खाती और सुबह नौ बजे से शाम छै: बजे तक मेरे साथ पूरे गांव में उछल कूद मचाती रहती। कई बार जिद करती तो उसकी खुली चोटी को बांधता था। पेड़ों पर चढ़ उसके लिए फल तोड़ता।
इन्हीं सबके बीच न जाने कब मैं उसको प्यार करने लगा पता ही नहीं चला। मैं शहर जाता तो मन, मेरा गांव में भटकता रहता। उसके बिना मैंने जीना नहीं सीखा।
एक बार जब मैं गांव आया तो प्रभा मुझसे जोर से लिपट कर बोली, कैलाश मैं तुमसे प्यार करती हूं। मुझे अपना लो। मैं हर हाल में तुम्हारे साथ रह लूंगी। बस तुम मुझे लेकर भाग चलो और वह फूट-फूट कर रोने लगी। मैं एक तरफ तो बेहद खुशी महसूस कर रहा था कि वह भी प्यार मुझे करती है। पर दूसरी ओर उसके इतने बड़े जमीदार परिवार से ताल्लुक रखना। मेरी हिम्मत जवाब दे गई। मैंने उसे अपने से अलग किया और पास बैठा कर आंसू पोछते-पोछते, उससे कहने लगा। प्रभा मुझे कुछ वक्त दो। मैं तुम्हारे बाबा से बात करने लायक तो हो जाऊं। तब एक दिन में तुम्हारा हाथ मांगने शान से तुम्हारी हवेली में आऊंगा। तुम मुझ पर विश्वास रखो बस।
प्रभा पूरे दिन एक शब्द भी नहीं बोली। बस मेरी गोद में सिर रख लेटी रही। दूसरे दिन मुझे शहर जाना था। हमेशा की तरह उस दिन भी जब मैं उसकी हवेली के सामने से गुजरा तो मुझे उसने ऊपर से हाथ का इशारा करते हुए पूछा, कि क्या मैं भी तुम्हारे साथ चलूं? पर मैंने उसे हंसते हुए ठहरने का इशारा किया। बस वह चेहरा मेरी सांसों पर बोझ बन गया। इतने वर्षों में ना जीने दिया, ना मरने दिया। मुझे शहर में रहते हुए ही भैया से पता चला कि ठाकुर साहब की बेटी की शादी पास के जमीदार परिवार के बेटे से हो गई। क्या शादी थी। पूरा गांव आज तक, उसको याद करते नहीं थकता। भैया शादी की तारीफों के पुल बांधते रहे और मैं अपने बिखरते महलों के सपनों की रेत को संभालने में लगा रहा। प्रभा अपने ससुराल चली गई। सुना था,उसका ससुराल मायके वालों से भी कई गुना बड़ा था। हर मामले में। बस मैं इसके बाद कभी गांव नहीं गया या यू सोच लीजिए अपने गुनाह से मुंह छुपा कर इधर-उधर भागता रहा। पर जब आज प्रभा को देखा तो, मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था। दोपहर से कब शाम हो गई मुझे पता ही नहीं चला। मैं मन ही मन कुछ सोचते हुए उठा और बेहद तेजी से उसी और कदम बढ़ाने लगा, जहां से मैं इतने वर्षों से भाग रहा था। अब उस ऑफिस के बाहर उस कार पर नजरें गड़ा कर खड़ा था, जिसमें प्रभा को जाना था। शाम से रात के नौ बज गए। खड़े-खड़े मेरी हिम्मत जवाब देने लगी पर पन्द्रह वर्ष पूर्व किए गुनाह ने, मुझे ताकत से जकड़े रखा। तभी प्रभा तेज कदमों से उस कार की ओर बढ़ने लगी। मैंने एक ऑटो को रोककर उस कार के पीछे चलने का कहा। ऑफिस से कम से कम दो किलोमीटर की दूरी एक सरकारी क्वार्टर था।
प्रभा कार से उतरकर ड्राइवर से कुछ कहती हुई गेट की ओर बढ़ने लगी। और ड्राइवर कार लेकर चला गया। मैंने भी फुर्ती से ऑटो को विदा किया और बेहद तेज कदमों से उस घर की ओर बढ़ने लगा। मैंने गेट खोल कर दरवाजे पर जाकर डोर बेल बजाने के लिए जैसे ही हाथ उठाया दरवाजा खोल प्रभा सामने खड़ी थी। अंदर आओ। उसके इतना कहते ही में झेप गया। पर अंदर आकर सोफे पर बैठ गया और उसने भी औपचारिकता निभाते हुए चाय काॅफी का पूछा। एक गिलास पानी देकर प्रभा अंदर चली गई शायद कपड़े चेंज करने गई हो। यह सोचते हुए में गिलास पकड़े- पकड़े चारों ओर नजरें घुमाने लगा।
तभी मेरी निगाह एक फोटो पर पड़ी। जिस पर फूल माला डली थी। रौबदार चेहरा बड़ा सुंदर लग रहा था। तभी पीछे से आवाज आयी, यह मेरे पति हैं। इनको गुजरे पन्द्रह वर्ष हो गए। मैं धड़ाम से आसमां से गिर कर जमीन पर आ गया। गिरते-गिरते बस इतना पूछ पाया, तुम्हारे बच्चे?
उसने कहा हां है ना प्रताप और विजय नाम के दो बच्चे हैं। मैं थोड़ा सम्भला, तब मैंने पूछा ऐसे कैसे तब वह बोली। मैंने नारी की मान मर्यादा को अलग रख, तुमसे अपने प्रेम का इजहार इसी कारण किया था। क्योंकि उस वक्त मेरे बाबा ने मेरा रिश्ता पक्का कर दिया था। पर तुम कायर निकले और मैं गुनाहगार। मैंने बिना ना नकूर किए सात फेरे अपने बाबा के डर के कारण उस शराबी जमीदार के बेटे के साथ ले लिए। और अपनी जुबान को हमेशा तुम्हारे नाम के ताले के साथ बंद कर लिया। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। विवाह के बाद जब मैं विदा होकर अपने ससुराल जा रही थी तभी हमारी कार का एक्सीडेंट हुआ। जिसमें मेरे पति की मौत हो गई और मैं बच गई। पर मैं शरीर से जिंदा थी। मन और आत्मा तो कब का मर गया था। जब मेरे अपनों ने ही मुझे सफेद जोड़ा पहना कर यह कहते हुए वापस ससुराल भेज दिया, कि अब वह घर ही तुम्हारा है।
मैं मौन की प्रतिकृति बन चुपचाप ससुराल चली गई। पर वहां पर भी मुझे दरवाजे से ही धक्का मार कर मनहूस कह कर निकाल दिया।
अब तुम बताओ मैं कहां जाती बस बिना कुछ सोचे विचारे चलती रही, चलती रही और बस चलती रही। काफी दूर निकलने के बाद एक ग्रामीण परिवार ने, जो कि खेतों में मजदूरी करता था, उन्होंने मुझे सहारा दिया। मेरी पढ़ने की इच्छा को नए पंख दिए। और देखो आज मैं तुम्हारे सामने हूं। वह परिवार अब मेरा सब कुछ है, सब कुछ।
तुमने अपने बेटों का जिक्र कैसे,,! मैंने पूछा।
प्रताप भी मेरे बब्बा का और विजय भी उनकी। इसलिए मेरे दो बेटे हैं,प्रताप और विजय।
अब तुम सुनाओ तुम्हारे बारे में। मैंने बस इतना ही कहा, मैं आज भी उस प्रभा का हाथ हिला कर पूछते हुए चेहरे को नहीं भुला पाया,जिस ने इशारे से पूछा था कि मुझे ले चलो। प्रभा मैं कायर नहीं था। बस उस वक्त की नजाकत और गहराई को समझ ना पाया। यदि मैं कायर होता तो आज भी जिंदगी के हर राह के मोड़ पर इंतजार करते हुए खड़ा नहीं रहता। यह सोचते पता नहीं किस राह से मेरी चाहत मुझे मिल जाए। देखो, प्रभा मैं आज भी उसी इंतजार की राह में खड़ा हूं। क्या इतने वर्षों के इंतजार को तुम पूर्ण विराम लगाओगी? क्या तुम एक बार फिर पहल कर मेरे पास आ सकती हो?
इतना सुनते ही वह मुझसे उस अमरबेल की तरह लिपट गई जिसको पनपने के लिए किसी अपने की या सहारे की जरूरत होती है। मैं भी उस अमरबेल को संभालने के लिए झुक गया।
डॉ. संध्या पुरोहित
छत्रीबाग, बाराभाई,
इंदौर