राम का वन गमन

( सरसी छंद )

ज्ञात हुआ जब सीता जी को, बन को  जाते राम। 

चरणों में सर रखकर बोली,सुनिए प्रभु सुखधाम।

अपने  चरणों  की दासी  को, ले लो अपने  साथ।

पत्नि धर्म पति सेवा करना, तोड़ो मत मम आस।।

अपनी  भार्या  सीता  जी  से , बोले  सीता   नाथ। 

जंगल  में  रहना  है मुश्किल,नहीं चलो मम साथ। 

घर  में  रहकर  मात पिता  की, सेवा  करना कर्म।

पति  की आज्ञा  पालन करना, भार्या का है धर्म।। 

प्राण  नाथ  से  सीता  बोली, सुनिए प्रभु श्री राम। 

अगर आप वन को जाते हैं,अवध नहीं मम काम। 

पति  के  दुख में साथ निभाना, भार्या का कर्तव्य। 

मैं   भी   तेरे   साथ   चलूँगी  , यह  मेरा  मंतव्य।।

वल्कल वस्त्र पहन लो  सीते, चलना है गर साथ। 

तेरे  सर  पर  सदा  रहेगा, मेरा  निशि -दिन हाथ।

फिर  भी  जंगल में  रहते हैं, बडे़ -बड़े निशि दूत। 

निशि में छल से रूप बदलकर,डरवाते बन भूत।।

प्राण  नाथ  जब  साथ  रहेंगे, देवर  भी  हो संग।

जीत  सकेंंगे  हम  सब वन में, कोई  भी हो जंग।

कितनी भी  विपदा आएगी, मिल कर लेंगे झेल। 

चौदह  सन्  ऐसे  बीतेगा , ज्यों बच्चों का खेल।। 

महेन्द्र सिंह राज 

मैढी़ चन्दौली उ. प्र.