लोग कहते भी हैं कि अपनी अक्ल मत लगाओ किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है कि अक्ल हो और लगाओ ही नहीं। हाँ, यह बात अवश्य है कि कभी अपनी अक्ल का अजीर्ण नहीं हुआ और न ही अपनी अक्ल मोटी है।हम ऐसे भी नहीं हैं कि अपनी अक्ल पर पर्दा डाले रहें। इसीलिए विश्वास रखें कि हम सारे काम अपनी अक्ल पर विश्वास करके ही करते हैं क्योंकि हमारा भरोसा है कि भले ही अक्ल दाढ़ न आई हो तब भी अक्ल की बात करते रहते हैं।
कभी कोई बात बिगड़ जाती है तो लोग कटाक्ष करने में नहीं चूकते कि आखिर तुमने अपनी डेढ़ अक्ल लगा ही दी। किन्तु क्या दुनिया में सभी इतने बुद्धिमान हैं जिनसे गलती नहीं होती। इंसान गलतियों का पुतला तो है ही। अक्लमंद से अक्लमंद भी गलतियां कर बैठते हैं।तब अपने से किसी के मन की बात समझने में कोई गलती हो जाए तो क्या ग़लत है। बड़े-बूढ़े कहते भी हैं कि अभी तुम्हारी अक्ल दाढ़ आई नहीं है,निरे बुद्धू के बुद्धू ठहरे,तुम्हें हर कोई लॉलीपॉप दिखाकर बरगला लेता है फिर भी हमारा मन उनकी बात नहीं मानता।हम कैसे उनकी बात पर विश्वास करें।
कई बार जब हमारे सामने मन की बात आती हैं,घोषणाएं होती हैं तो दिल बाग-बाग हो जाता है,हम बहुत गहराई से उसमें डूब जाते हैं और समझ भी जाते हैं कि अब अपना भला होने वाला है। जब छः इंची मुस्कान के साथ बुद्धू बक्से में प्रकट होकर कोई बिजली-पानी,राशन मुफ्त देने की बात करता है तो हमारी समझदानी में वह बात तत्काल प्रवेश कर जाती है, क्या इसके बाद भी हम बुद्धू हैं।हमें अक्ल नहीं है।माना कि हमने चार अक्ल दाढ़ के बिना ही अठ्ठाइस दांतों के साथ अक्खी जिंदगी गुजार दी लेकिन फिर भी हमें इतनी समझ तो है कि हमारी भलाई हमारी जाति, समाज,वर्ग और मजहब का ही व्यक्ति कर सकता है।दूसरा पराया जन भला क्या कभी अपना होगा! नहीं न। क्या यह अक्ल वाली बात नहीं है।
यह बात अलग है कि कभी-कभी अक्ल चकरा जाती है लेकिन इसमें भी अपना दोष कहाँ है।लोग स्वयं ही मतिभ्रम पैदा कर देते हैं।ऐसे में अक्ल गुम नहीं होगी तो क्या होगा।अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं।तब आप कह सकते हैं कि अक्ल के अंधे हो गए हैं।जब लोग ऐसे आरोप लगाते हैं तब अक्ल के घोड़े दौड़ाना पड़ते हैं।इस स्थिति में अक्ल के पीछे लठ्ठ लिए फिरना पड़ जाता है और अक्ल सठिया जाती है तब गुस्सा तो इतना आता है कि अक्ल को ही ठिकाने लगा दूं।
बात अक्ल की ही करूंगा मगर हाँ,कोई धोखा दे जाए,तो अलग बात है। फिर भी पराए पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता है न! लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि अपनी मति ही मारी गई है और लोग ताना देते फिरें कि क्या तुम्हारी अक्ल घास चरने गई थी। इसीलिए कहता हूँ कि बेअक्लों थोड़ा होश में आओ। हमारी अक्ल पर संदेह करना छोड़ दो।
डॉ प्रदीप उपाध्याय,16,अम्बिका भवन,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड,देवास,म.प्र.
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