सारी चिंताओं और कष्टों को
मैंने दर किनार किया है
थोड़ा जी लूँ खुद के लिए
ये फैसला मैंने बार बार किया है
नहीं छुटता पीछा अब
इस उधेड़बुन में ही जी रही हूँ
लगता है आदत हो गयी है
मन ही मन कह रही हूँ
हो जाती इंसान की
अपेक्षा उपेक्षा में बदल
जिसके कल गुणगान थे
आज उसी में बुराई निकल
आकांक्षाएँ थी हजार पर
उनमें होने लगा अब फेर बदल
इच्छाएं उठ उठ खड़ी होती है
फिर भी हो रही विफल
ख्वाहिशों का गला
क्यों घुट जाता
या उसका ही जंजीरों में
बंद होना चुभ जाता
उन्मुक्त पंछी सी
उड़ान की चाह में
रौंध दी जाती
सिर्फ एक आह में
दब जाती क्षण भर के लिये
फिर उठ खड़ी होती है
ख्वाहिशें मेरी
एक नई उड़ान के साथ
और निकल पड़ती है
नयी राह में
●मेघना वीरवाल
गाडरियावास, आकोला