– धर्मपाल महेंद्र जैन
आज टीवी चैनल खुला तो खुला ही रहा। आँख वाले अंधों का दंगल चल रहा था। पहलवान मरियल थे पर वाचाल थे। एंकर माइक ऑफ कर देते तो भी उनकी दहाड़ गूंजती रहती थी। मुझे डर था कि मैं टीवी ऑफ कर दूंगा तो वे टीवी स्क्रीन से बाहर निकल कर मेरे घर में चिल्लाने लग जाएंगे। अपने घर को गदर की पीड़ा से बचाने के लिए मैंने टीवी ऑन ही रखा। वे सड़ा-गला परोसते रहे, मैं अरूचि से वह सब ग्रहण करता रहा। मिठाई जहरीली हो तो भी मिठाई होती है। लार टपकाती जीभ को क्या मालूम कि शक्कर की बजाय विष शरीर में तेजी से फैलता है।
आज के दंगल में सब जनेऊधारी थे। एक की जनेऊ लाल थी, दूसरे की हरी, तीसरे की पीली, चौथे की काली। नेपथ्य में और भी रंगबिरंगी जनेऊ थीं। किसी के पास असली सफेद जनेऊ नहीं थी। सबने अपनी-अपनी जनेऊ कान पर चढ़ा रखी थी और वे शास्त्रार्थ कर रहे थे। अब मुझे समझ आया कि उनके शास्त्रार्थ में मूत्र की दुर्गंध क्यों आ रही थी। कुछ धाराप्रवाह शास्त्रियों के बाएँ हाथ में पत्थर की छोटी-सी गिट्टी थी। शास्त्रार्थ करते समय वे जनेऊ चढ़ा लेते और सुनते समय वे शास्त्रार्थ को गिट्टी पर टपका देते थे। ऐसे समृद्ध दंगल की कल्पना किसी शंकराचार्य ने नहीं की होगी। हिंदू, हिंदुत्व और हिंद सब निशाने पर थे। जो पशु भी नहीं थे, वे हिंदू माने जा रहे थे और जो कर्म से हिंदू थे वे आदमी भी नहीं रहे थे। राजनीति, धर्म और भाषा को नंगा कर रही थी और रिंग मास्टर चीरहरण पर तालियाँ बजा रहे थे। पच्चीस मिनट के सत्र में मुझे जो अपार ज्ञान मिला वह ग्लानि में बदल गया। एक बहस में आतंकवादी भगवान का आसन पा गए। अब भगवान कभी भी आतंकवादी करार दिए जा सकते थे।
अब मैं दूसरे चैनल पर था। इस लीला मैदान में दंगल नहीं था, जादूगर थे। हाथ की सफाई कम थी, शब्दों का खेल ज्यादा। इन जादूगरों ने टोपियाँ पहन रखी थीं। एक लाल टोपी वाले थे, दूसरे काली, तीसरे रंगहीन गोल टोपी वाले और चौथे साफेनुमा हरी टोपी वाले। सबके हाथों में बोतलें थीं। ये हर बार नई बोतलें खोलते। जादू का जैसा खेल बताना हो, बोतल उसके अनुरूप होती। नेपथ्य में उनकी बड़ी बोतल की छवि थी, जिसमें आश्वासन भरे दिखते थे। आश्वासनों का कटा कुचला शव साफ दिखता था। आज वे अपने-अपने जिन्न लेकर आए थे। जिनके अपने जिन्न छोटे थे, वे पड़ोसी देश के बड़े जिन्न लेकर आए थे। वे ढक्कन खोल कर अपने मृतप्रायः जिन्न को खींचकर निकालते और उसे जिंदा करने की कोशिश करते। दर्शक यह खेल देखते-देखते बोर हो चुके थे पर उनके पास कोई विकल्प नहीं था। नई पीढ़ी के जादूगरों के पास भी जिन्न वाली पुरानी बोतलें थीं। जादू कुंद हो गया था और जादूगर का कौशल बोथरा गया था। पर भीड़ खरीदने के लिए पैसा उन्हीं के पास था। कोई न भी देखता तो वे प्रायोजित जादू दिखा सकते थे। हम उनकी बोतलों में उनके जिन्नों की वापसी देखते रहे। सब जानते थे कि यह जादू इंद्रजाल था, छलावा था, सम्मोहन था, पर इसी में जनतंत्र की उम्मीद बाकी थी।
ईमेल : [email protected] फोन 001 416 225 2415
22 फैरल ऐवेन्यू, टोरंटो, एम2आर 1सी8, कैनेडा