राजेंद्र बज
ऊपर की आमदनी का नीचे से ऊपर तक बहुत महत्व हुआ करता है। बंधी-बंधाई आमदनी के अतिरिक्त जो बरसती हुई ऊपर की आमदनी होती है, यकीन मानिए, उसका रसास्वादन आदमी को मरते-मरते भी मरने नहीं देता। अब आप ही बताइए, भला बंधी-बंधाई आमदनी तो घर की मुर्गी के बराबर होती है, जो दाल रोटी के अतिरिक्त अन्य कोई गारंटी नहीं देती। असल जायका तो जो अतिरिक्त मिलता है, दरअसल वहीं अतिरिक्त प्रसन्नता का विषय होता है। विषय वासना में डूबे आप और हम अपनी बंधी-बंधाई से घर की जमी जमाई गृहस्थी को चलायमान रखे भी तो कैसे ? वैसे भी बढ़ती महंगाई के दौर में जो निश्चित मिलता है उससे गुजारा नहीं हो सकता।
यही कारण है कि ‘ अनिश्चितता ‘ को ‘ निश्चिंतता ‘ में तब्दील करने हेतु भाई लोगों ने कहीं-कहीं तो अलग-अलग स्तर पर ‘ भेंट पूजा ‘ की दर भी निर्धारित कर दी है। निश्चित रूप से यदि इस निर्धारित दर के अतिरिक्त कोई ‘और कुछ ‘ की चाहत रखता है, जाहिर तौर पर उसे भ्रष्टाचारी करार दिया जा सकता है। कुछ लोगों ने तो भ्रष्टाचार को शिष्टाचार में परिवर्तित कर दिया है। अब भ्रष्टाचार करते हुए किसी को तनिक भी लाज नहीं आती। वैसे भी भांग जब कुएं में घुल जाती है तो प्यासे के लिए अन्य कोई विकल्प नहीं होता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यहां-वहां देना पड़ता है,इसलिए यहां-वहां से ऊपरी आमदनी के निमित्त अलग-अलग दौर में अलग-अलग तरीके इजाद किए जाते हैं।
अब उनको ही देखो, उनकी बातों में नीति और सिद्धांत उछलकूद मचाते रहा करते हैं। लेकिन जब उन्हें बिना उछलकूद के नजराना मिलता ही मिलता है, इसलिए वह तो मात्र ‘ मुख शुद्धि ‘ के खातिर सिद्धांतों की वकालत करते हुए नजर आते हैं। वह कहते हैं कि हम भी समाज में रहते हैं, हमें भी लेना-देना पड़ता है। यही कारण है कि हम लेन-देन में विश्वास करते हैं। यूं भी तो सरकारी तौर पर ऐलान किया जाता है कि सौजन्य से सभी प्रसन्न रहा करते हैं। ऐसे में जमाना हमारे पेट पर लात क्यों मारे ? बात कायदे की भी है कि किसी भी खाते-पीते की पीठ ठोकना चाहिए , लेकिन कभी भूल कर भी उसके पेट पर लात नहीं मारना चाहिए। बड़े सयाने कह गए हैं कि पेट की भूख आदमी को आदमखोर बना देती है। खैर।
जिस प्रकार सड़क चलता कोई पहलवान गिर जाता है तो वह 2/4 दंड बैठक लगा दिया करता है। जाहिर है कि लोग यह समझते हैं कि पहलवान है – मन में आया रियाज कर बैठे ! इसी तर्ज पर जब कोई भ्रष्टाचारी भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़ा जाता है, तब यही कहता है कि मुझे उलझाया गया है। यह अलग बात है कि जिस कारण वह उलझा है, कालांतर में उसके उसी कारण के चलते सुलझना भी आसान हो जाता है। जी हां, आप ठीक समझें ! दरअसल लोहा ही तो लोहे को काटता है और कांटे को कांटा निकालता है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम डरते-डरते ऊपर की आमदनी बरसाते हैं और जैसे ही वह मंजूर हो जाती है, अंतर्मन में असीम आनंद की दिव्य अनुभूति हुआ करती है।