” अजनबी “

आज वापस आया हूँ. उस शहर से जो मेरा था.मैं उसका था. जहाँ ज़िन्दगी के बहुत हसीन दिन गुज़ारे थे. जहाँ कुछ पाया कुछ खोया था.वहाँ के वो रास्ते जो कभी बहुत छोटे लगते थे. जिन पर चलते हुए ,घूमते हुए ,टहलते हुए, सुबह से शाम.. रात से सुबह हो जाती थी. वो रास्ते ,वो सड़कें अब भी वही हैं.बहुत कुछ बदला है. बहुत कुछ वैसा ही है. मैंने उन्हें एक ज़माने के बाद भी पहचान लिया. बस वही मुझे परायों की तरह देखते रहे. पहले हर दो क़दम पर एक पहचाना ,हर चार क़दम पर एक जाना ,हर दस क़दम पर एक आवाज़ , किसी की पुकार , किसी की मुस्कुराहट ,क़दम रोक लेती थी. लेकिन इस बार दूर तक घूम आया . बहुत से मौहल्ले, बहुत सी गलियाँ ,बहुत सी सड़कें ,बहुत से बाज़ार और बहुत सी दुकानों में घुसा मगर कोई न मिला. किसी ने आवाज़ न दी. किसी ने न पुकारा. किसी ने भी न पहचाना .एक आवाज़ सुनने को कान तरस गये.” अरे तुम ! बहुत दिनों के बाद आये. कैसे हो ?”

अपना शहर…अपना चमन मगर उसके लिए मैं कितना अजनबी हो गया.

जाफ़र मेहदी जाफ़री

178/247 गोलागंज

लखनऊ

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