एक ने पूछा गधे भी हँसते है ? मैंने कहा, भाई मैंने आजतक तो किसी गधे को प्रत्यक्ष रूप से हँसते हुए देखा नहीं। लेकिन भले लोगों के मुँह से सुना है कि गधे भी हँसते है। आगे कहा, मैंने तो कृशन चन्दर के उपन्यास “एक गधे की आत्मकथा” में गधे को मानवों जैसा व्यवहार करते जरूर पढ़ा है। सामने वाला तो मेरी इस बात पर आश्चर्य से गधे का बाप बनकर कहने लगा, भला कोई गधे पर भी उपन्यास लिखता है ? आजकल ऐसे लेखक पाये जाते है ? मैंने कहा, “पाठक होना चाहिए। कुछ लेखक तो श्वान पुराण तक भी लिख सकते हैं।”
खैर बात गधे के हँसने की चल रही थी। कुछ दिन पहले मैंने सोशल मीडिया पर एक गधे को यह कहते हुए सुना कि वह “उस देश से आता है”, जिसमें उसे असहिष्णुता ही असहिष्णुता दिखती हैं ! वह अपने आप को अपने देश के सबसे बड़े गधे के रूप में प्रस्तुत कर रहा था। वह गधा अपने देश का नाम भारत बता रहा था ! विदेश में कविता के नाम पर गधापन झाड़ रहा था। इन दिनों भारत में ऐसे गधों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। लगता है जैसे पाकिस्तान ने अपने सारे गधे भारत की ओर घेर दिये हो। जो भारत की रोटीयों पर पलते हैं और विदेशों में गधों जैसा हँसते है ! कविता के नाम पर वह गधा सोशल मीडिया पर दो-तीन दिनों तक सिर्फ़ ढेंचू-ढेंचू करता ही खड़ा रहा।
इधर कुछ गधे विदेशों में जाकर बड़े बड़े घांस के मैदानों में चरकर मोटे-ताजे चर्बी युक्त हो गए है। इधर के गधे उनपर हँसते है और उधर के गधे इधर के गधों पर हँसते हैं। हर कोई पूछ रहा है ये ‛गधे हँस क्यों रहे हैं ?’ अब भला गधों से ऐसा पूछने की समझदारी कौन करें। क्या पता कैसा जवाब आ जाये। गधों से बात करते हुए कोई बुद्धिजीवी व्यक्ति देख ले तो उस बात करने वाले प्रगतिशील व्यक्ति को कहीं गधा समुदाय का न समझ बैठे। इतना बड़ा गधा जोखिम कौन उठाये।
फिर भी आजकल गधे हँसते हुए ज्यादा पाये जा रहे हैं। ऐसा सोशल मीडिया वाले कहते हैं। मुझे तो अब भी भरोसा ही नहीं होता कि गधे हँस भी सकते हैं ! आखिर गधे इस मानवीय क्रिया को क्यों करने लगे ? क्या मानवों के बाद गधे भी नकल करने लग गए हैं ? जो वे मनुष्यों की तरह हँसने लगे हैं ! उन्हें कौनसी प्रतियोगिता परीक्षा पास कर सरकारी नौकरी प्राप्त करना है।
आजकल के कुछ भारतीय गधे तो कृशन चंदर के गधे से भी आगे निकल गए हैं। कृशन चंदर का गधा तो सिर्फ़ चीन व रूस का साम्यवादी विकास मॉडल भारत में लाना चाहता था ! लेकिन वर्तमान के कुछ गधे तो भारत में पश्चिमी देशों का संपूर्ण विकास मॉडल ही उठाकर लाना चाहते है और उसपर भी आये दिन समाचार पत्रों में बड़े बड़े विज्ञापनों के माध्यम से हँसते रहते हैं। जैसे वे किसी गधास्तान में विकास पुरूष बनकर खड़े हो !
मुझे आश्चर्य तो उस दिन हुआ था जब मेरे एक मित्र ने कहा कि आजकल बहुत से गधे संसद में भी घुस गए हैं। जब मैंने पूछा वे संसद में भला क्या करने घुस गए और किसने उन्हें उस “लोकतंत्र के मंदिर” प्रांगण में घुसाया ? मित्र कहने लगा, उधर हरि-हरि घांस के बड़े-बड़े मुगलीया व ब्रितानिया बगीचें देखकर, उन्हें किसी भले मतदाता ने उधर घुसा दिया। मित्र को मैंने कहा, फिर तो सही किया उस भले मतदाता ने ! “अब जिधर ऐसी आयातित मुलायम हरि-हरि घांस होगी, गधे उधर ही तो घुसेगें।” इसमें भला कौन-सी आश्चर्य की बात है । हो सकता है, “गधे इस कारण ही उस भले मतदाता के इस लोकतांत्रिक कर्तव्य के लिए उसपर भोली-भाली हँसी हँसते रहते हो….!!
भूपेन्द्र भारतीय
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