कुछ कदम तुम जो चले,
खुद पर फक्र होने लगा,
जिस मां-बाप के पास पले,
उनको तुमने देदी दगा!
फक्र तुम्हें किस बात में है,
भूल गए जो साथ में है,
ना वक्त दिन या रात में है,
बस धन दौलत ही हाथ में है!
फक्र तुमने जो किया,
आखिर धन के अलावा क्या लिया,
खुद को वक्त भी ना दिया,
हाय तूने फिर क्या जिया!
फक्र कर तू फक्र कर,
कितना है फक्र तुझे खुद पर,
धन के लिए भटक दर-दर,
मर मर के जी, जी जी के मर!
फक्र करने के लिए, तू एक बात अब मान ले,
अपनी जिंदगी को तू, खुद से ही जीना जान ले,
अपनों को हमेशा साथ में, लेकर तू चल,
लेकर तू चल!
फिर भी यह माध्वी कहती है,
यह फक्र अब भी ना कर, अब भी ना कर,
क्योंकि कब वो वक्त आ जाए,
अपनी भी कर दे हम से कोई छल,
अपने भी कर दे हमसे कोई छल!
डॉ माध्वी बोरसे!
एजुकेशनिस्ट!
(रावतभाटा) राजस्थान!