वो घर, घर नहीं है,जहां बुजुर्ग आश्रय नहीं रहता।
कोठी बंगला व्यर्थ ,उसे कोई अपना नहीं कहता।
बड़े प्यार से बंटवारा कर दिया था उन्होंने सबका,
आज एक कोने में पड़ा,वो नादां सब कुछ सहता।
तजुर्बा ज्यादा लेकर भी, वो कुछ भी नहीं कहता।
तेज धूप में पसीना बहा बहुत ,पर दर्द नहीं बहता।
समय सुनने सुनाने का अब बिल्कुल ना रहा वीणा,
सब कुछ सह कर भी, अपने घर में खामोश रहता।
अब अपनों को तो अपनों का ,इंतजार नहीं रहता।
पैसों से ही कोई किसी को,कभी अमीर नहीं कहता।
सोचो सदा उनके लिए जो आपके बारे में सोचते रहे,
देखभाल के अभाव में तो,मजबूत किला भी ढहता।
खामोशी से सब देख रहे, पर कोई कुछ नहीं कहता।
पूर्व दिशा में सदा उगता सूर्य ,पर वो वहीं नहीं रहता।
हकीकत से कब तक जी चुराते रहोगे नादा बन सब,
जवानी खामोशी में बीती,वो बुढ़ापे में ज्यादा सहता।
वीणा वैष्णव रागिनी राजसमंद
राजस्थान