हसरतों की गर्मियाँ फिर से पहनकर आ गया,
चौंक कर क्यों देखते हो हाँ, दिसम्बर आ गया ।
यक-ब-यक मौसम ने अपना रंग जो बदला तो फिर,
गुनगुनी सी धूप ओढ़े, शाल स्वेटर आ गया ।
भूलने निकली थी मैं राह-ए-मुहब्बत में तुझे,
सामने से फिर तेरी यादों का लश्कर आ गया ।
रोक ना पाया कोई मेरे सफ़र का रास्ता,
सामने दश्त-ओ-जबल चाहे समंदर आ गया ।
शायरी में मीर-ओ-ग़ालिब मानता था ख़ुद को जो,
वज्द में वो भी मेरी ग़ज़लों को सुनकर आ गया ।
फूस की कुटिया बनाई थी बड़े अरमान से,
देखते ही देखते कैसा बवंडर आ गया।
इस तरह लौटा है वो कुछ मेरी जानिब अय “सुमन”
जिस तरह से शाम का भूला हुआ घर आ गया ।
संगीता श्रीवास्तव “सुमन”
छिंदवाड़ा मप्र