ग़ज़ल

हसरतों की गर्मियाँ फिर से पहनकर आ गया,

चौंक कर क्यों देखते हो हाँ, दिसम्बर आ गया ।

यक-ब-यक मौसम ने अपना रंग जो बदला तो फिर, 

गुनगुनी सी धूप ओढ़े, शाल स्वेटर आ गया ।

भूलने निकली थी मैं राह-ए-मुहब्बत में तुझे, 

सामने से फिर तेरी यादों का लश्कर आ गया ।

रोक ना पाया कोई मेरे सफ़र का रास्ता,

सामने दश्त-ओ-जबल चाहे समंदर आ गया । 

शायरी में मीर-ओ-ग़ालिब मानता था ख़ुद को जो, 

वज्द में वो भी मेरी ग़ज़लों को सुनकर आ गया । 

फूस की कुटिया बनाई थी बड़े अरमान से,

देखते ही देखते कैसा बवंडर आ गया।

इस तरह लौटा है वो कुछ मेरी जानिब अय “सुमन”

जिस तरह से शाम का भूला हुआ घर आ गया । 

संगीता श्रीवास्तव “सुमन”

छिंदवाड़ा मप्र