“”व्यथित मन””

कंटकों में हूं भटकती पुष्प जीवन म्लान है।

जी रही अभिशाप लेकर मम व्यथित मन प्रान है।

मूर्ति खंडित सी पड़ी हूं खंडहर की भीत में,

ना कलश मंदिर बनी ना देव का कुछ भान है। 

लुप्त सुर लय ताल है वह रागिनी भी शोक में,

भग्न वीना तंतु कंपित रुग्ण से सब गान हैं। 

भ्रांति ही मुझको रही मैं चल रही हूं शुभ दिशा,

पथ सभी खोए विपिन पद चिन्ह भी अन जान हैं।

हैं सघन से मेघ घिरते चक्षु उर की कोर में,

धुल रहे कल्मश सभी देखूं कहां तक त्रान है।

एक झंझावात आया ले गया जो पास था,

सूर्य उगता था कहीं पर क्या तुम्हें वह ध्यान है।

व्यर्थ के हैं स्वप्न सारे मीत इस नश्वर भुवन,

है सुधा अमरित कहीं ,पर शुचि अधर विष पान है।

 शुचि गुप्ता