हो न सका पाक, विधाता के हाथो संवरकर,
करेंगे क्या ? ये मानव, मेरे माथा चढकर।
दीवानगी दौलत की लाया, परेशानी के घर मुझे,
मनाता दिवाली, दिवालियेपन की गाथा गढ कर।
बेअसर रहा हर चाल मेरी, अल्लाह के आगे,
कहानी करीने बोया जमीं में, दाता समझकर।
घात, भीतर – घात करता रहा, अनोखे अंदाज में,
मिली पूरी सजा पर, चला था मैं सादा समझकर।
घूटन घटनाओं के लिखने में खपाया कलाकारी,
चाँद, तारे, कुदरत निहारा नहीं, सत्ता में पलकर।
विनसा विवेका
( जमशेदपुर, झारखण्ड )