मिट्टी के बर्तन

—————————-

चला रहा था चाक  कुम्हार 

बना रहा था मिट्टी के बर्तन 

माथ चढ़ाता हर बार 

करता  चाक समर्पण 

रौन्दे कितना हर बार  वो 

ठोके पीट लाख,पर

मिट्टी का ये लगाव उससे इतना गहरा

ढल जाती उस रूप जिसे वो गढता

खुश होते निज रूप पर 

चाहे जो आकार 

क्या सोचे निज भाग्य पर 

पकने को जब जाय ,भट्ठी मे पड जाये

 तप कर और निखर कर निकले 

सोचे अब तो पार

पर आगे की राह जो 

उस पर आस लगाये 

अबकी तो तर जाये

ख्वाब सजाता वो भी

अब किस राह है जाना 

मिले चुनरिया धानी या फिर

कफन ओढाना

दोनो ही है कर्मकाण्ड अधूरे,मेरे बिन

चलना होगा निज पथ पर 

अब तो हर दिन 

होगी यही यात्रा यूं ही पूरी मेरी

मिट्टी मे ही मिल जाना  किसी भी दिन

कैसे कैसे कर्म निभाता 

मिट्टी के बर्तन 

है अपनी भी वही गति

जैसे मिट्टी के बर्तन 

चला रहा है चाक कुम्हार 

बना रहा फिर मिट्टी के बर्तन

वंदना श्रीवास्तव