एक अकेली स्त्री
गुँथ रही थी शब्दो को ऐसे,
जैसे गुँथ रही थी बया …
अपने घोसलों के तिनको को जैसे।।
आचार विचार मे उलझी,
अपने आप मे बिखरी….
समेट रही थी, अपने मन को ऐसे।।
जैसे बटोर लेता है,भोर होते ही
सूर्य अपनी रश्मियों को…..
मन के ख़ालीपन को,
बांट रही थी वक़्त से ऐसे।
जैसे मेघ देता है बरसात
पृथ्वी से ऊष्मा को लेकर जैसे।।
डॉ वंदना मिश्र मोहिनी