सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन के कटु यथार्थ को व्यंजित करते ‘दीमक लगे गुलाब’

(प्रियंका ‘सौरभ’ का ग्लोबल ज़माने की लोकल कविताओं का संग्रह; अमेज़न, फ्लिपकार्ट और अन्य ऑनलाइन मंचों पर उपलब्ध है)

‘दीमक लगे गुलाब’ युवा कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ का ‘निर्भयाएं’ के बाद दूसरा संग्रह है, साहित्य सृजन के क्षेत्र में वे लंबे समय से सक्रिय है। साहित्य और समसामयिक लेखन में प्रियंका ‘सौरभ’ आधुनिक तकनीकी युग की कवयित्री हैं लेकिन उनकी संवेदना की जड़ें परंपरा में गहरी जुडी हुई हैं। यह भी कहा जा सकता है कि प्रियंका ‘सौरभ’ की कविताएँ ‘ग्लोबल’ जमाने में संवेदना के क्षरण के प्रतिवाद के रूप में ‘लोकल’ को प्रस्तुत करने वाली कविताएँ हैं।

प्रस्तुत कवितायेँ कई तरह की है। उसके कई स्रोत हैं। रूमानी भावबोध और उसका टूटना युवा मन की काव्य धारा का स्त्रोत है। आलोचक भले ही कवियों को अतीतजीवी कहते रहें, लेकिन अतीत की यादें ही जीवन को रसमय बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती हैं। इसीलिए कवयित्री चाहकर भी खंडित प्रणय-अनुभूति की स्मृति से बाहर नहीं आना चाहती। इन स्मृतियों में कवयित्री ने बहुत कुछ समेटकर रखा है –

सूना-सूना सब तुम बिन, रात अंधियारी, फिके दिन ।

तुम पे जो मैंने गीत लिखे, किसको आज सुनाऊं मैं ।।

इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं ग़ज़ल और दोहा के शिल्प में हैं और कुछ रचनाएं गीत के शिल्प में भी हैं। लेकिन कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ विधाओं के चौखटे में बंधी हुई नहीं हैं। कविताओं की आकर्षण शक्ति इनमें विद्यमान सहज प्रवाह और लयात्मकता में निहित है। सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ के अंकन के प्रति कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ की प्रतिबद्धता इस संग्रह के घोष वाक्य से ही उजागर होनी शुरू हो जाती है –

शकुनि चालें चल रहा है, पाण्डुपुत्रों को छल रहा है ।

अधर्म की बढ़ती ज्वाला में, संसार सारा जल रहा है । ।

बुझा डालो जो आग लगी है, प्रेम-धारा बरसाओ मेरे श्याम ।।

भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी है कि सरकारें बदलती हैं लेकिन गरीब जनता के हालात नहीं बदलते। आम आदमी की इस नादानी पर कवयित्री विस्मय करती है कि वह लिखे तो क्या लिखे ?-

लिखने लायक है नही, राजनीति का हाल ।

कुर्सी पे काबिज हुऐ, गुण्डे-चोर-दलाल।।

मां पर यहां कई कविताएं हैं प्यार, संवेदना और उसकी विशाल हृदयता के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करती हुईं। कवयित्री मन वर्तमान में रिश्तों में आये बदलावों से दुखी है और कहती है कि अब रिश्तों के मायने बदल गए है। आज हम जिन रिश्तों के साथ जी रहें है वो ‘दीमक लगे गुलाब’ की तरह है जो दिखाई देते है मगर वास्तविक खुशबू से वंचित है –

सदियों से पलते जाते,अपनेपन के रिश्ते नाते,

जलकर के राख हो गए हैं ,बीती हुई बात हो गए है ।

माँ का छलकता हुआ दुलार, प्रिया का उमड़ता अनुपम प्यार

मानो-

दीमक लगे गुलाब हो गए है ,हर चेहरे पे नकाब हो गए है ।।

संग्रह में चालीस से अधिक कविताएं संगृहीत हैं जो एक से बढ़कर एक हैं। इनमें जहां जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण प्रतिबिंबित हुआ है, वहीं जीवन के प्रति अनुराग का भावभरा संदेश भी मुखरित हुआ है।

 ‘अब कौन बताए ?’ में उनके देशभक्ति स्वर मुखर हो जाते हैं। ‘दिल में हिंदुस्तान’ में एक पुकार है और इसी आस की ज्योति से प्रकाशित उनकी अंतरात्मा कह उठती है-

आज़ादी अब रो रही,देश हुआ बेचैन ।

देख शहीदों के भरे दुःख से यारों नैन ।।

मैंने उनको भेंट की, दिवाली और ईद ।

सीमा पर मर मिट गए, जितने वीर शहीद ।।

प्रियंका ‘सौरभ’ हमारे समय के तमाम युवा रचनाकारों की तरह वर्तमान से असंतुष्ट और रुष्ट कवयित्री हैं। उनका असंतोष और रोष उनकी पूरी पीढ़ी का असंतोष और रोष है; लेकिन प्रियंका ‘सौरभ’ की अभिव्यक्ति प्रणाली की विशेषता इस बात में हैं कि वे इस असंतोष और रोष को नारा नहीं बनने देती, बल्कि पूरी संजीदगी के साथ वर्तमान की शल्यक्रिया करते हुए अपनी अभिप्रेत व्यवस्था का सपना देखती हैं। इसके लिए वे प्रतीक और मिथक का कवयित्री -सुलभ मार्ग खोजती हैं। प्रतीक और मिथक के सहारे वे ऐसी काव्य-

यह शुभ संकेत है कि इस पीढ़ी का रचनाकार न तो अतिरिक्त आवेश में है और न ही अतिरिक्त अवसाद में। अपने समय की विरूप सच्चाइयों को पहचानने वाली कवयित्री आशान्वित है कि अमावस के बावजूद पूर्णिमा अवश्य आयेगी बशर्ते हम माटी का हक़ अदा करें –

इस माटी में जन्मी, एक रोज,

इसी में मिल जाऊँगी,

है अरमां काम देश के आए,

अब कौन बताए ।

– डॉ० रामनिवास ‘मानव’

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी-विभाग,

सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज०)