स्त्री को
प्रेम और युद्ध एक साथ करना है
कभी खुद से, कभी समाज से
हारकर जीतना है
युद्ध हारकर सपने खोदेगी
स्त्री को दो चेहरे वाले लोगों से लड़ना है
योद्धा थकता नहीं,
पलभर के लिए विश्राम करता है
हर स्त्री के भीतर एक योद्धा होता है
उस राक्षस का वध करना है
क्यों न ढूंढना पड़े उसे पाताल में
राधा नहीं बनो जो रो रोकर आंसू बहाती रहो
नहीं तो उद्धव उपदेश देकर निकल जाएंगे
सुधा बचाने के लिए
नहीं तो इस पृथ्वी से जीवन विलुप्त हो जाएगा
विचार व संवेदना के समुच्चय से आंदोलन करना है
उठ खड़ा होना होगा
नायिका बन रणभूमि में उतरना होगा
है वह शिकार पुरुष के अर्धसत्य की
मुकाबला स्त्री का खुद से पहले,बाद में किसी से
महिला की छटपटाहट है स्वयं की जमीन पाने की
कर स्थापित पुरुष के समक्ष
पुरुष रखे संवेदनाओं की खिड़की खोलकर
स्त्री पैदा नहीं होती, निर्मित की जाती है
समाज से मांगती आंखों के ख्वाब
छिपा शक्तिपुंज भावुकता के आवरण में
पुरुष के गढ़ने ,गढ़ को ढहाने की कुव्वत है उसमें।
प्रो. अमर सिंह,
शासकीय महाविद्यालय चांद,
छिंदवाड़ा,
मध्य प्रदेश।
M 7898740446