नेह का अकल्पित अनुमान होना चाहती हूँ

तुम्हें  हरि  कर  , मैं  दुलारी- वृषभान   होना  चाहती  हूँ ।  

युगों  तक पूजे जहां  , प्रेम  का  वो मान होना चाहती  हूँ ।

सत्य शपथ ले तुम्हारा, उजाले भी तुम्हीं से उजास माँगे

इन दिव्य चक्षुओं का , मैं  लक्ष्य  संधान होना चाहती हूँ ।

तुम्हें पा  के न  पायी रुक्मिणी  न जीत  पाए  सत्यभामा,

राधा  सी ,पावन हृदय का मैं ही अरमान होना चाहती हूँ।

हर   उलझनें   तेरी   खत्म  हो   जाए  आकर  जहां  पर ,

विकट परिस्थितियों  का  मैं समाधान  होना चाहती  हूँ।

तेरे  अधर  की   बाँसुरी  , न  मैं  पांव  की उपाहन रहूंगी

उर  के  वनमाल सी , श्रद्धा -सम्मान  होना  चाहती हूँ ।

सुधा  रस  ले  कर  शरद के चँद्र  सा,  तू उदित  हो  जहाँ

विस्तृत फलक वो मैं  नीला आसमान  होना  चाहती  हूँ।

जिन्हें  पाकर धन्य  हुए   हो  नंद  और  माता   यशोदा ,

उस   देव  का , मैं   ही  प्रेम  आख्यान  होना चाहती  हूँ।

कभी  गीता  रचे, कभी  बने  वो  पार्थ का  भी  सारथी,

रखे  ले लाज पांचाली का, मैं अभिमान होना चाहती हूँ।

मन -मंदिर  में  करूँ प्रतिष्ठापित, हर भाव है अर्पण तुम्हें 

दीप हो उदीप्त,नेह का अकल्पित अनुमान होना चाहती हूँ।

दीपप्रिया मिश्रा

राँची ,झारखंड