वो आंगन, वो चौखट,

वो आंगन, वो चौखट,

वो घर का नज़ारा याद आता है,

जब कभी भी पड़ जाती हूं,

ससुराल में अकेली,

मां का घर बहुत याद आता है।

वो माँ के हाथ के खाने की याद आती है,

वो दाल में लगे तड़के की खुशबु ससुराल तक आती है।

आती है आज भी माँ के घर से मिठाई,

वहां की यादें भी साथ आती है।

हैं जिम्मेदारियां कुछ खुद पर भी,

वही संभालने की रीति निभाई जा रही है,

खुश हूं ससुराल में,

पर फिर भी माँ-बाप की याद आती है।

वो शहर, वो अपना पन कहो,

या कहो मोह माया का जाल

फिर भी,

माँ के घर की याद आती है।

हर्षा बाबानी मंदसौर