।। यूपी चुनाव : आओ खेलें जाति-धर्म का कार्ड ।।

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आबोहवा में हलचल,

आज बड़ा तेज है,

हर तरफ डुगडुगी,

भोंपू का गूंज है,

देखो ग़ालिब , 

कहीं चुनावी बयार है,

“विकास” का कार्ड, 

 बना है मुखौटा ,

 नेपथ्य से गोरख खेल, 

 जाति-धर्म का ,

वाह री ! लोकतंत्र।।

जी, हां। सही सुना आपने। देश के सबसे बड़े राज्य – उत्तर प्रदेश में  चुनावी बयार बह रही है। सब लोकतंत्र की दुहाई दे रहें हैं । सबको देश की जनता की चिंता सता रही है। नेताजी अपनी जीत के लिए बड़े-बड़े दावे कर रहें हैं। सबको विकास की पड़ी है। विकास चुनावी समर में गायत्री मंत्र बन गया है। हर नेता सुबह-शाम 108 बार जाप करने में लगा है। कहीं इसी बहाने जनता लुभा जाए और  भाग्य का ताला खुल जाए। लेकिन पूरे चुनावी परिदृश्य को खंगालते हैं और नेताओं का डबल – मीनिंग भाषण का मूल्यांकन देखते हैं तो स्पष्ट झलकता है कि पूरी चुनावी खेल वोटिंग आते -आते तक जाति-धर्म के कार्ड पर टिकेगा।क्या योगी ,क्या माया या फिर क्या अखिलेश ? हालांकि भाजपा  योगी के पिछले  पांच सालों के विकास कार्य का कीमत जनता से मांग रही है । लेकिन वहीं दूसरी तरफ वह अपने विकास के मुद्दे पर पूरी तरह भरोसा करती नहीं दिखती। इसकी बजाय ,वह धार्मिक प्रतीकों और नारों का इस्तेमाल करके हिन्दू वोटरों को रिझाने का कोशिश करती दिख रही है,जो अन्य राज्यों की तरह यूपी में भी बहुमत में हैं । भव्य काशी – दिव्य काशी के उद्घाटन के फौरन बाद पीएम मोदी का उपसर्गात्मक बयान- उप+योगी = “उपयोगी” के गहरे निहितार्थ हैं। वहीं अखिलेश भी समाजवादी नैया को मुस्लिम – यादव के  पतवार से खेवनै में पीछे नहीं दिख रहें हैं। ऊपर से ओवैसी की एआईएमआईएम की धार्मिक लाईन पर इंट्री । गौरतलब तो है कि 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम दिखातें हैं कि धार्मिक- जातिय धुर्वीकरण ने कमोबेश सभी राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचाया था। वोटों के समीकरण को देखें तो जिन सीटों पर मुस्लिम 40 फीसदी से अधिक थें,सपा वहां कुल 30 सीटों में से 14 सीटें यानी 30 %वोट। वहीं जिन सीटों पर मुस्लिम वोटर 30-39 फीसदी थें ,भाजपा वहां स्वीप करने में सफल रही । सीएसडीएस सर्वे 2014, 2019 (लोस) तथा 2017( विस) चुनाव में  59% हिन्दुओं ने भाजपा को वोट किया। भाजपा , इतना ही नहीं पिछड़ा वर्ग , अनुसूचित जाति-जनजाति के वोट बैंक में सेंधमारी करने में कमोबेश सफल रही । यूपी में महज 25%वोट ही है जो स्विंग वोटर हैं ,जिनका दलीय निष्ठा एक दो दिन पहले ही झलकता है।

सवाल मौजूं है कि जब लोकतांत्रिक महापर्व में चुनावी गणित जाति और धर्म के आगे पीछे घूमती है तो वहां विकास और जनकल्याण की भावना कहीं न कहीं बहुत हद तक पीछे छूट जाती है या कमजोर पड़ जाती है। यूपी का चुनाव निर्णायक है । अभी तो आरोप -प्रत्यारोप का दौर बाकी है, नेताओं की खेमाबदली,देखनी है। चुनाव एक है लेकिन रंग अनेक हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट भी भृकुटी ताने है। क्योंकि ओमीक्रोन का खतरा है। खैर! देखना दिलचस्प होगा कि यूपी चुनाव की तिथि कब घोषित होती है ? जनता चुनावी समर में यथावत रहती है या सत्ता में बदलाव चाहती है। किसके मत्थे ताज , किसके हिस्से हार परोसती हैं। 

डॉ. हर्ष वर्द्धन

पटना बिहार

9334533586 .