काश तुम समझ पाती
मेरे हृदय के अनुदार
जाड़े में ओंस की महीन बूंदों
को एक वनाती बडी बूंद की तरह
वो अलसाये से मेरे उदगार
जो वक्त वेवक्त उठते वैठते
मूक अलफाजों की भाषा
को सुनकर तुम कुछ समझ पातीं
दिल में उठते भावों को तुम सहज ही
महसूस कर पातीं
मेरी कविता ओं में रची वसी प्रेमानुभूति
तुम्हारे ही आंगन से होकर गुजरती है
अलपघ झांकती मेरी प्रेमातुर
निर्मूल संवेदनाएं भी तुम्हें देखकर
करतीं है श्रृंगार और पातीं हैं
वजूद अपने होने का
तुम थीं तो सबकुछ था
अधूरे अधूरे से ख्याल
अब तड़पते है पूरे होने के लिये
किस से कहूं वो हृदय में उठती हुई
टीस जो संवेदनाओं को लांघ कर
विचरती है तुम्हारी तरह ख्यालों में
वो तुम्हारा मुस्कराना क्या सहज था
मेरे लिये ,पैदा करता था एक भरी पूरी
उम्मीद जीने के लिये
मेरी कहानियों में घूंघट निकाले तुम
अपने रुप सौन्दर्य से चांद को भी
अभिभूत कर देती
कुछ पल ठहर जाने के लिये
काश तुम समझ पाती
स्पंदित हृदय की मनुहार
जो गुनगुनाता है तुम्हारे ही
गीत
वहतीं हैं नदियां प्रेम सागर की
इस हृदय से उस हृदय के बीच
उगते है कमल पुष्प
हमारे प्रणय अमरत्व को करतें हैं
साकार
कभु-कभी सजीव र्मूत तस्वीरें
गातीं हैं प्रणव गीत हमारे-तुम्हारे
-यू.एस.बरी
लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश