रोज़ सिसकती हैं आहें ,
जलता है बदन ।
तपिश के अंगारों से ,
फिर कहां तपता है कफ़न ।
ओढ़ लाचारी की चादर ,
झांकता है जब जिस्म ।
मुफ़लिसी की इस सौगात को,
फिर आंकता है गम ।
रोज़ सिहरती है जिंदगी
विचलित होता है मन ,
ओस की झरती बूंदों को भी कहां रोकता है,
रजाई में लगा पैबंद ।
सुबह हो या सांझ,
दिखता है बस अभाव ।
कहीं मनता है जश्न,
तो कोई ढूंढता है अलाव ।
रश्मि वत्स
मेरठ ( उत्तर प्रदेश)