रैन हुई है वाबरी ,मूक सी है धरा
कंटको से भरी प्रेम की ये राह
है अग्न सी वेदना उठी उर में पीर
झर-झर बहती, कमलनयन से नीर
तप रही सलिला तलैया भी सुख चला
संग आह विरह की बादल भी लौट चला
रैन हुई है वाबरी मूक सी है धरा
कंटको से भरी प्रेम की ये राह
घोर तम फैल रहा मन के संसार में
किस तरह फिर जीये दुखों के अंबार में
रौशनी का अंश मिले जुगनूओं से अगर
थाह पाकर फिर चलूँ जो अंजान सा डगर
रैन हुई है वाबरी मूक सी है धरा
कंटको से भरी प्रेम की ये राह
शिलाएँ भी गाती है गीत कोई मिलन की
निर्झरा की संगीत में कह गई सब मन की
सुन विरहन की पीड़ा अंबर भी है खूब रोया
बिन सावन के घटा घेरकर बादल है बरसाया
रैन हुई है वाबरी मूक सी है धरा
कंटको से भरी प्रेम की ये राह
सपना चन्द्रा
कहलगाँव भागलपुर बिहार