“युवा होती कन्या”

धीरे धीरे युवा होती कन्या

घर में बसती हुयी जान है 

लगती सबकी पहचान है

चहकती मानों गौरेया सी

पिता के लाड की पुडिया सी

उपदेशों का जैसे पिटारा सी

माँ के मन का नव सहारा सी

महका करती घर आँगन चौबारा

नये सपनों का भर के खजाना

घर में घूमती थी जो फिरनी सी

भरती थी जो कुलाँचे हिरनी सी

पश्चात विवाह जब आती है

जाने क्या हो जाती है

पिता की नाजुक सी गुडिया

जिम्मेदारियों का पर्याय बन जाती है

साडी में लिपटी हुयी बिटिया

सजा के माँग और बिंदिया

अब कहीं खो जाती है

शान्त,गम्भीर हो जाती है

              अन्जना मनोज गर्ग

               कोटा राजस्थान