घर पर उतरी डोली जब, अरमानों की झोली थी,
गृह प्रवेश करने वाली, घर में नई नवेली थी,
सपने हज़ार बसा आँखों में, तज अपना घर आई थी,
इस घर को अपना घर समझ, सबको अपनाने आई थी।
प्रश्न होता एक ही सबका, क्या-क्या लेकर आई है,
इतना पढ़ा लिखा है लड़का, क्या ऐसे ही ब्याह कर आई है,
सोना तो ज़्यादा है नहीं, वस्तुऐं भी दो चार ही लाई है,
लगता है मानो, अत्यंत ही, मध्यम वर्ग से वह आई है।
लेकर गर कुछ आती तो, घर की काया पलट जाती,
नई दुल्हन के संग-संग, घर की सुंदर झांकी तब बन जाती,
मालूम होता जो पहले से, ज्यादा कुछ ना लाएगी,
पहले ही हाथ खड़े कर देते, यह शादी ना हो पाएगी।
पढ़ा लिखा कर बेटे को, इतना पैसा ख़र्च किया,
सोचा था वापस आएगा, किन्तु स्वप्न अधूरा ही रह गया,
कानों में उसके जैसे, विष की गोली घुल रही थी,
लगा उसे आज मानो उसकी कीमत लग रही थी,
जिनको मैंने अपना समझा, वह दौलत के पुजारी निकले।
वह क्या समझेंगे दर्द पिता का,
बेबसी में कितने उनके आंसू निकले,
उनने भी तो मुझको पाल पोसकर बड़ा किया है,
पढ़ाई लिखाई पर मेरी ना जाने कितना उनने व्यय किया है।
ख़ुश क़िस्मत तो आप हैं, पढ़ी लिखी किसी की बेटी,
बिन व्यय ही आपके घर आई है,
सोना चाँदी नहीं ना सही, विद्या तो संग में लाई है,
कंधे से कंधा मिलाकर, पति संग मैं काम करुँगी,
जितना व्यय किया है उन पर, उतना पूरा मैं अदा करुंगी।
पर उस पिता को भला मैं क्या दूँगी,
जिसने अपना सर्वस्व लुटा कर,
पूरा जी जान लगाकर, मुझको पाला था,
बदले में कुछ भी तो नहीं चाहा था और
अपने दिल का टुकड़ा, तुम्हारी झोली में डाला था।
यही पता था मुझको बेटियों का कन्यादान किया जाता है,
किंतु नहीं पता था मुझको यह,
बेटों का तो यहाँ व्यापार किया जाता है,
बेटों का तो यहाँ व्यापार किया जाता है।
-रत्ना पांडे