रेत मुट्ठी से फिसल रहे हैं
चाहकर भी दिल कैसे मिले
आसमां में पंक्षी मचल रहे हैं
इक लकीर खिंच गई शर्म से
रेत मुट्ठी से फिसल रहे हैं
फिज़ाओं में कुछअजीब
सरसराहट सी बह रही है
करवट बदलती सिलवटें
कुछ और कह रही हैं
कब तक रखूं निगाहों में
आ जाओ तुम बांहों में
आरमां मचल रहे हैं
रोशनी अंधेरे को निगल रहे हैं
इक लकीर खिंच गई शर्म से
रेत मुट्ठी से फिसल रहे हैं
ताजगी है तेरी बला की
लेती हुए अंगड़ाई में
जी करता है समा जाऊं
तेरे रूप की गहराई में
नाक-नक्श नयन तीखे
सांसे छू रही तेरी अधरों को
बयां करते,कुलांचे भरता मन
छूते समंदर की लहरों को
तेरी जुल्फ के साये से गुजरते
कैसे दिन ढ़ल रहे हैं
इक लकीर खिंच गई शर्म से
रेत मुट्ठी से फिसल रहे हैं
चाहकर भी दिल कैसे मिले
आसमां में पंक्षी मचल रहे हैं
इक लकीर खिंच गई शर्म से
रेत मुट्ठी से फिसल रहे हैं
…..राजेंद्र कुमार सिंह
लिली आरकेड,फलैट नं-101
इंद्रानगर,वडाला पाथरडीह रोड
मेट्रो जोन,नाशिक-09,ईमेल: