तारों से हैं…अक्सर पूछा करते…
हम तो आधी रात को …
चांद हमारा …कहां खो गया
तरसा करते बात को
तारे कहते… नींद उड़ा के
कहीं छिपा है….छलिया अपना
हम भी उसको ढूंढ रहे…
तरस रहे हैं…साथ को
हम तो ऐसे तरसा करते…
हैं उसके ….दीदार को
जैसे बसंत को …कोयल तरसे
और पपीहा….बरसात को
रो रो कर मैं… रैन गुजारूं
तरसूं ….तेरे प्यार को
आजा मेरे मीत.. पुकारूँ
तुमको…तेरे प्यार को
मोहन को हैं… ग्वाल तरसते
फूल तरसते… प्रात को
हम भी हैं….आज तरसते
अपने चंदा के…साथ को
तुम बिन ऐसे… बीत रहे हैं
दिन मेरे …संसार में
बिना खिवैय्या… नैय्या जैसे …
बीच पड़ी …. मझधार में !!!
डॉ.प्रभात द्विवेदी
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी-विभाग
राजकीय महाविद्यालय
रानीखेत ,अल्मोड़ा
उत्तराखंड