ओ पिंजरे का पंछी जाने कैसे तू पिंजरे में जीता होगा
सबका मन बहलाने के लिए तू कितना दर्द पीता होगा
दुनिया वाले सब कहते है तू ऊँचे महलों में रहता है
और तेरे लिए नरम मखमल का बिछौना बिछता है
तू लोहे के नही वरन सोने के पिंजरे में रहता है
महल चाहे जैसा भी हो पर हे मानव मुझे तो
ऊँचा और विशाल खुला आसमान ही चाहिए
मुझे मखमल का नही टाट का बिछौना भी चलेगा
गर हो सके तो मुझे नीड़ का बसेरा सबसे अच्छा लगेगा
पिंजरा लोहे का हो या हो सोने,हीरे जवाहरात का
जीना तो उसमें फिर भी मन मार के ही पड़ता है
रे बंदे तू क्या जाने पीर पराई ……
मेरा दर्द तो कैद में रहने वाला मानव ही समझेगा
पिंजरे का पँछी जाने कैसे तुझे ये दीवारें सुहाती होगी
मन को मार कर जाने कैसे तू अपनी मुस्कान लुटाती होगी
मुझमें और नारी में कोई विशेष फर्क नही है
मेरा पिंजरा दिखता है उसका नज़र आता नही
मैं पिंजरे की कैद में रहता हूँ वो पुरुषों की कैद में रहती है
दूसरों को सुख देने के लिए वो स्वयं दुख में रहती है ।।
डॉ प्रणिता राकेश सेठिया ‘परी’, रायपुर(छ. ग.)©
– चंद्रप्रकाश छाजेड़ 9024240624