एक दिन 

एक दिन पहाड़ पर

गांव में रहते तंग होकर

एक दिन पहाड़ पर 

जहां से गांव एक झुण्ड लगता

जा पहुंचा गांव को समग्रता में देखने

देखता हूं वहां से

जैसे गांव केवल बेजान अस्तित्व 

एक मूक भौतिक झुण्ड 

जिसमें निरवता फैली सर्वत्र 

गांव में जो अन्धड़ था 

कलेश-कलह का परिसीमन 

आग थी दुर्भावना की 

वहां से देखने पर सब कुछ विलुप्त था

पहाड़ से गांव सुंदर लगता

खेल रहा जैसे मां की गोद में

भोला शिशु सा खिलौनों में निमग्न बेखबर अपने से दूसरों से

प्रकृति जैसे सहला रही

मानो प्यार लुटा रही 

मुग्ध हो रही स्नेह-प्रवाह से 

प्रफुल्लित थी वात्सल्य में झूमती 

मैं भूल गया था यह देखकर 

अन्तर में जलता

सुलगता दुख का ज्वालामुखी 

विस्मृत सी थी हठीली चेष्ठाये

 सारा अवसाद जैसे धुल गया 

अभिभूत हुआ प्रकृति के मातृत्व प्रेम से 

धन्य हुआ प्रकृति की निश्छलता से धन्य हुआ प्रकृति की उदारता निहार कर 

बहुत अधम समझ रहा था स्वयं को

मैं पहाड़ से नीचे उतर आया

गांव पास आ गया 

लोगों के कोलाहल और कलह पुनः पूर्ववत मन में अवसाद भरने लगे।

डाक्टर हिमेन्द्रबाली’हिम”

कुमारसैन शिमला हिमाचल प्रदेश