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गॉड मदर…. फूलन देवी…. और अब गंगूबाई काठियावाड़। हालीवुड से लेकर बॉलीवुड तक ना जाने कितनी फिल्में महिला अस्मिता, सुरक्षा और सशक्तिकरण को लेकर बनी होंगी। ताकि समाज में कोई बड़ा, व्यापक और सार्थक बदलाव आए। दरअसल, फिल्में समाज का आईना होती हैं। समाज में जो घटित होता है और जैसा समाज होता है फिल्मी उसी को बड़े एवं रुपहले पर्दे पर व्यावसायिक नजरिए से उतारी जाती हैं। हां, यह बात अलग है कि इसमें रोमांस, रोमांच एवं हॉटनेस का तड़का कुछ ज्यादा ही लगा दिया जाता है कि ताकि दर्शकों के मनोरंजन के बहाने फिल्मी कारोबारियों का कारोबार परवान चढ़ सके, फले- फूले। सवाल मौंजू है कि आजादी के 75 बसंत बाद भी आधी आबादी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है और वह आज भी अपनी आजादी , अस्मिता सुरक्षा एवं संरक्षा को लेकर हैरान और परेशान हैं। क्या आम, क्या खास ? घर- आंगन से लेकर बाहर तक हर जगह औरतों को उपभोग की वस्तु समझा जा रहा। आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में आज प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में किसी भी उत्पाद के विज्ञापन को लेकर महिलाओं को ही प्रमोट किया जा रहा है कहीं शालीनता के साथ तो कहीं भड़काऊ बदन के साथ, आखिर क्यों? विडम्बना देखिए यह हालत उस मुल्क में है जहां यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता की अवधारणा है। भंसाली की आलिया भट्ट अभिनीत गंगूबाई एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म है, जिसमें सीधी और सामान्य रास्ते पर चलने वाली महिला को अन्याय से लड़ने के लिए आखिरकार शस्त्र उठाने पड़ते हैं! वेश्यावृत्ति रूपी गंदगी के दलदल में जूझना और लड़ना पड़ता है ,कालांतर में वह ऑर्गेनाइज्ड क्राईम की सरगना बन जाती है। गोया की अपराध सरगना का अभिनय आसान नहीं होता फिर भी फिल्में एक संदेश देने की कोशिश की गई है की औरत अगर धैर्य, संयम, प्यार ममता और त्याग की प्रतिमूर्ति है तो वक्त पड़ने पर वह अपनी अस्मिता को बचाने के लिए रौद्र रूप भी धारण कर सकती है। पूर्व में शेखर कपूर के फिल्म फूलन देवी, मशहूर उपन्यासकार मारियो पूजो के “द गॉडफादर” की कहानी पर केंद्रित शबाना आजमी अभिनीत फिल्म “गॉड मदर” सिर्फ बॉलीवुड के रुपहले पर्दे की कमाऊ कहानी भर नहीं है। बल्कि अन्याय और असमानता की कोख से समाज में पनपती विषमता को भी दिखाती है। गौरतलब तो है कि प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक सिमोन-द-बोउआर की ऐतिहासिक दस्तावेज “द सेकंड सेक्स” को अगर खंगाले तो स्पष्ट पता चलता है कि अन्याय और असमानता की फसल को बोना नहीं पड़ता है यह समाज रूपी जंगल में घास-पतवार की तरफ फैल जाती है। सामंती सोच और सरकारी उदासीनता के कारण जब इसे आम आदमी की सहमति प्राप्त हो जाती है तो नासूर बन जाता और इसे सुधारना एक यक्ष प्रश्न। सवाल मौजू है कि फूलन देवी, गॉड मदर और गंगूबाई के बहाने पुरुष प्रधान भारतीय समाज की सामंती सोच में कोई बड़ा बदलाव आएगा और हम आधी आबादी के साथ बराबरी का व्यवहार करेंगे? और उनके हक और हुकूक के लिए कारगर पहल करेंगे? हालांकि वैधानिक और संवैधानिक स्तर पर महिला सशक्तिकरण नारी अस्मिता और सुरक्षा के लिए सैकड़ों प्रावधान किए गए हैं, हमारा समाज प्रगतिशील भी है, लेकिन बात जब अपने पर आती है तो हम “सांस्कृतिक विलम्बना”के शिकार हो जाते हैं। जरूरत इस बात की भी है कि उसे व्यवहारिक रूप देखकर सामाजिक धरातल पर उतारा जाए क्योंकि…..
नारी है महान,
उसकी कोख से पुरुषों की है पहचान
ममता की है वह आन
संघर्ष की है उत्थान,
अन्याय के खिलाफ आवाज महान।।
डॉ.हर्ष वर्द्धन
पटना (बिहार)
9334533586