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कौन कहता है
धूल हो तुम
पैरो से रौंदी हुई
तुम तो हो जीवन रेखा
दम्भ को चूर चूर करती
महज धूल नही हो
आँधी हो तुम !!
उठो और उखाड़ दो
उन नापाक कदमों को
जिन्होंने तुम्हे रौंदा
आँधी से कोई न बचा
ना कोई
रोक पाया है इसके
प्रचंड आवेग को !!
अपने वेग से
उखाड़ दो सदियों से
बंद है जो दरवाज़े
हिला कर रख दो
क्रूरता के संवाहक
नामर्दों का पुरुषत्व
गिरा दो दीवारें
संकीर्णता की
बस, एक बार अपनी
राह पहचान लो
महज़ धूल नहीं
आँधी हो तुम !!
● योगिता जोशी
झोटवाड़ा, जयपुर (राजस्थान)