खत्म हुई जिजीविषा

लांघ दे ड्योढ़ी अब ,तोड़ दे रस्म दीवार।

भरने को  लम्बी उड़ान, तू हो जा तैयार।

हाथों की लकीरों को बदलना है तुझको,

जंजीर से बाहर निकल,ना कर इंतजार।

अदृश्य जख्म मन में, जीवन तार- तार।

शब्दों के शमशीर अब,होते जिगर पार।

सहती रही तो जीवन नासूर बन जाएगा,

तोड़ दे कच्चे धागे,नहीं है जिनका सार।

मुस्कुराना भूल गई, बन नादां समझदार।

थोड़ी सी वाह वाही मिले, रही मन मार।

जन्नत की चाह नहीं रखी उसने तो कभी,

अभाव में जीऊंगी,मिले अपनों का प्यार।

खत्म हुई जिजीविषा,कभी न आई बहार।

औरत हूं, नहीं मिला मुझे कोई अधिकार।

रूढ़ियों की जंजीर से मुक्त करो अब मुझे,

पाजेब का शौक, पर बेड़ी मिली उपहार।

वीणा वैष्णव रागिनी

   राजसमंद    राजस्थान