कविता में ढलती हूं

मैं अपने हर अनकहे चुप के, नये आकार लिखती हूं..

कभी तेरा-कभी मेरा, मैं दिल का हाल लिखती हूं

कहूं कैसे कि “बहाने” से, मैं मन बेहाल लिखती हूं !!

गढ़ती हूं मैं कविताएं , कभी “एहसास” लिखती हूं

लिखती ही नहीं केवल, “होने” की बात लिखती हूं !!

बिखर जाती हूं रिसकर मैं, घुटन की बात लिखती हूं

संभल जाती हूं वहीं लेकिन मैं स्व-सम्मान लिखती हूं !!

विरह की शाम लिखती हूं, हां..मैं श्रृंगार लिखती हूं

नहीं कह पाती जब कुछ भी, वो जज़्बात लिखती हूं !!

मैं पछतावे लिखती हूं , “मन के हालात” लिखती हूं

ठहर जाती हूं एक पल को, जब ‘वो नाम’ लिखती हूं !!

लिखती हूं शिकायत भी ,मैं तेरा “साथ” लिखती हूं

मिलन की बात करती हूं ,पर “इंतज़ार” लिखती हूं !!

अजब हालात हैं यारों, न जानें क्या-क्या लिखती हूं

लिखा है उसको ही मैंने,जब अपना नाम लिखती हूं !!

जुबां अब तक नहीं बोली, मैं वो इतिहास लिखती हूं

कभी धूप..तो कभी छांव, मैं सब त्योहार लिखती हूं !!

हवाओं का मैं ज़िक्र लिखूं, पेड़ों की बात लिखती हूं

मैं सूरज की कहानी में , बारिश का गान लिखती हूं !!

कविता में ढलती हूं, कभी सूरजमुखी सी खिलती हूं

मैं अपने हर अनकहे चुप के, नये आकार लिखती हूं !!

नमिता गुप्ता “मनसी”

मेरठ, उत्तर प्रदेश