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मैं पहले वाला,
वो गांव खोजता हूँ।
जहां, मिट्टी की,
कोमल गलियां होती थी,
हम नंगे पैर ही खेलते थे,
कभी गिर भी जाते,तो,
घाव हल्का ही होता,
जिसे हंसकर झेलते थे।
खपरैल व घास के,छत होते थे,
मिट्टी का ही दीवाल होता था,
हर घर में चबूतरे और,
कहीं बीच में चौपाल होता था,
हर घर में होती थी,
रसोई के लिए सुंदर बाड़ी,
जहां लगे होते थे सब्जियां,
और कई फलदार झाड़ी,
खेतों में भी खूब होती थी,
दलहन तिलहन की पैदावारी,
गाये भी होती थी,
खूब दूध देने वाली,
बड़ी समृद्धता से भरे हुए,
लोग इकट्ठे होकर संवाद करते,
गांव में वो पीपल छांव खोजता हूँ।
मैं पहले का वो गांव खोजता हूँ।
जीवन चन्द्राकर”लाल”
गोरकापार,बालोद(छत्तीसगढ़)