** निर्मला **

खिड़की के ग्रिल के सहारे अपना माथा टिकाए वह खड़ी थी। उसके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि और स्वाभिमान झलक रहा था।  वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। जैसे बरसों से नासूर बन चुके जख्म को उसने आज अपने ही हाथों शल्यक्रिया कर निकाल फेंका हो।  एक एक कर सारे दृश्य आंखों के सामने घूमते जा रहे थे और वह उनमें किसी गोताखोर की भांति डूबती – उतराती जा रही थी। सारे दृश्य ऐसे लग रहे थे मानों कल की ही बात हो…..

” अरे बधाई हो निर्मला!! बेटे की इतनी अच्छी नौकरी लग गई। अब एक चांद सी बहू ले आ।”

आस-पड़ोस की महिलाओं की ईर्ष्या मिश्रित कई साल पहले की बधाइयां आज उसके कानों में गूंज रही थी। लेकिन आज वही बधाईयां उसे शोर प्रतीत हो रही थीं।आंखें तो न जाने कब  सूखी नदी बन चुकी थी ।  

 सहसा उसने  शोर से बचने के लिए अपने कान बंद कर लिए। एक शांति छा गई उसके अंतर्मन में। वह वर्तमान में लौट आई। जाकर रसोई को निहारा। चारों तरफ बिखरे डब्बे, फ़र्श पर पड़ी अस्त-व्यस्त चीजों को देख कर उसकी सूखी नदी में किसी दैवीय चमत्कार से मानो जल की बूंदें स्वयं ही छलछला उठी। 

उसे आज भी याद है कितनी खुश हुई थी वह। जब पहली बार वो मां बनी थी। फिर तब वह कितना खुश हुई थी जब तरुण ने पहला कदम बढ़ाया था। जब-जब तरुण ने सफलता प्राप्त किया था, विजय दर्प से उसका चेहरा चमचमा उठा था। कितने अरमान थे उसे कि तरुण की शादी वह अपनी पसंद की लड़की से करेगी। बहू को बेटी की तरह रखेंगी। सब साथ साथ खुशी से रहेंगे। पोते पोतियो को पाकर वह फूली नहीं समायेगी। कभी-कभी वह चिढ़ भी जाया करती थी जब लोग कहते थे कि ” बड़ी किस्मत वाली है निर्मला। बेटे की नौकरी उसी शहर में लगी है। अब तो बहू के हाथ का खाना खाएगी वह। बड़े ठाट होंगे उसके। “तब निर्मला को जी करता कि बस चुप करा दे उन सबको। खुशियों को नजर लगते देर नहीं लगती, तो कभी-कभी मन ही मन हर्षाती भी। कितनी जगह देखने के बाद एक जगह शादी तय हुई तरुण की। शादी में हुई ऊंच-नीच को भुलाकर उसने प्रतिमा को अपनाया था। उसे परछते  हुए उसने कहा भी था ,”  अर्चना तो  चार दिन में अपने घर चली जाएगी। अब तुम ही बहू भी हो और बेटी भी।” 

  विज्ञान ने ऐसी दूरबीन अभी तक नहीं बनाई है  जिससे दूसरे के मन की बात को जान सके कोई। निर्मला भी बहू के मंसूबे भाप न सकी। शादी के कुछ दिनों बाद ही उसने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए। उसकी हर गलती को निर्मला बचपना समझ माफ करती गई। धीरे-धीरे बहु ने घर के कामों में भी पारी बांट दी।  बिचारी निर्मला बहू की राह तकती जब थक जाती तब खुद ही जाकर रसोई में जुट जाती थी । उसका मन दुखा तो जरूर था लेकिन वह नहीं चाहती थी कि उसका घर टूटे। इसीलिए अक्सर चुप रह जाती।

 तरुण के लाख पूछने पर भी वह बहू की गलतियां नहीं बताती। तरुण से अपनी मां की यह उदासी नहीं देखी जाती थी लेकिन वह ठीक से समझ नहीं पाता था। इसी बीच प्यारी-प्यारी दो पोतियाँ आ गई। निर्मला की दुखती रग पर मानो उनके कोमल स्पर्श ने मरहम का काम किया। दादा- दादी की शीतल छाया और देखभाल में धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे। घुटरन करते- करते वे अब पूरे घर में दौड़ने भागने लगे थे। उन्हें देखकर निर्मला बहुत खुश होती थी।

 लेकिन उधर जो ज्वालामुखी शांत सी दिख रही थी वह अंदर ही अंदर खौले जा रही थी। जैसे किसी विस्फोट की प्रतीक्षा कर रही हो। आखिर एक दिन अंदर का उबलता लावा बाहर उफ़न कर आ ही गया। सुबह की एक छोटी सी बात पर शुरू हुई बहस ने अपनी सारी सीमाएं तोड़ दी।  बहू ने बूढ़े सास-ससुर को कई अनर्गल ,अपमानजनक शब्द सुनाएं। अपनी सीमा से बाहर जाकर उसने उन को अपमानित किया । बूढ़े मां बाप की आंखें रोते-रोते सूख गई । मन भी कठुआ गया। 

कोई रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा था। एक बार लगा सब कुछ छोड़ कर गंगा की शरण ले लें वे। जिस घर की एक एक ईंट को उन्होंने अपने खून पसीने की कमाई से जोड़ा था। आज उसकी नींव उन्हें हिलती दिखाई दे रही थी। फिर अगले ही पल निर्मला ने स्वयं को संभाला। अपने आंसू पोछे। मन ही मन सोच लिया ,” वे वृद्धाश्रम जाने या आत्महत्या करने जैसा पाप नहीं करेंगे। ” 

अगली सुबह नास्ते के टेबल पर वह गुमसुम थी। उसे शांत देख तरुण ने टोका,” क्या हुआ माँ। इसतरह चुप क्यों हो।”

” कुछ नहीं बेटा। बात बस इतनी सी है…..” वह आगे बोल नहीं पायी। तरुण घबराया, ” बोलो ना मां, बोलो ना।”

सुबकती निर्मला ने कहा,” अब हम अलग रहेंगे बेटा।”माँ की बात सुन तरुण की आँखों से आंसूओं का झरना बह निकला। प्रतिमा की ओर देखते हुए वह बस इतना कह पाया, ” बताओ ना मां ।आखिर हुआ क्या?”

” जो होना था वह हो गया बेटा। बस अब और नहीं।” इतना बोल सुबकती निर्मला ने तरुण और अर्चना को गले लगाकर चुम लिया।

अलका ‘सोनी’

बर्नपुर, पश्चिम बंगाल