कड़ी धूप में पसीने की मोती बहाये कोई,
उन मोतियों से अपना घर सँवारे कोई,
थोड़े पैसे और आँसू लिए जिए कोई,
पैसों में डूबकर सब सुख भोगे कोई।
ऐ दुनिया, मई दिवस तो आता-जाता रहेगा,
मगर यह कटु सत्य, झूठ कब बनेगा ?
गिरेंगी बनती दीवारें, मरेगा मजदूर,
धंसेगे बनते पुल, दबेगा मजदूर,
आवाजें दब जाएंगी, सब रहेंगे खामोश,
मौत के साए में ही रहेंगे तंत्र के ये मजबूर।
ऐ दुनिया, मई दिवस तो आता जाता रहेगा
मगर क्रांति का बिगुल बिना स्वर कबतक बजेगा ?
भीषण जाड़े में नहीं काँपेंगी हड्डियाँ उनकी,
बरसात में भी नहीं भीगते कपड़े उनके,
धूप में भी कहाँ जलती हैं त्वचा उनकी ?
अंदर-अंदर रो लेंगे, पर कौन सुनेगा मन की ?
ऐ दुनिया, मई दिवस तो आता जाता रहेगा
मगर आधी सांसों का हाड़-मांस कबतक खटता रहेगा ?
आसमान में उठेंगी ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएँ,
दूर तक पसर जाएँगी सड़कें लम्बी-लम्बी,
झूल जायेंगे तारों पर अनगिनत पुल-पुलिया,
पर शिलापट्टो पर चमकेंगे केवल नेता दम्भी।
ऐ दुनिया, मई दिवस तो आता जाता रहेगा
मगर नवनिर्माण में उनका कुछ भी कबतक नहीं दिखेगा ?
– ज्ञानदेव मुकेश
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