बढ़ती दानव वृत्ति पर,
मानवता का मान चाहिए।
पाप से पुष्पित जगति पर,
अंकुश और लगाम चाहिए।।
दूषित धर्म और नीति पर,
अन्यावतार बौने पड़ रहे।
भू का दर्प बढ़ाने को अब,
फिर से परशुराम चाहिए।
लील गया हिरण्याक्ष धरा जब,
रूप वराहा उत्तम था।
मंदराचल जब डूब रहा था,
कूर्म रूप सर्वोत्तम था।।
कैसा अत्याचार चल रहा!
मानवता का मान जल रहा।
हिंसा, लूट और बेईमानी,
सब का कारोबार फल रहा।।
परशु व शारंग से भगवन!
सब का काम तमाम चाहिए।
भू का दर्प बढ़ाने को अब,
फिर से परशुराम चाहिए।।
पर्याप्त नहीं अब,मत्स्य-मोहिनी
काम-क्रोध और छल-बल में,
छोटे पड़ रहे,पग वामन के,
अनाचार के दल-दल में।
देवों सा गणतंत्र यहाँ है,
कानून कोईं शख्त नहीं।
नरसिंह, नहीं बन पावोगे।
प्रह्लाद सा कोंई भक्त नहीं।।
दिल्ली के गलियारों तक,
भृष्टों का नहीं काम चाहिए।
भू का दर्प बढ़ाने को अब,
फिर से परशुराम चाहिए।।
मर्यादाएं मीट गई सब,
जो राम रूप में सिखलाई।
भरत-लखन बीच उठी दीवारें,
दुश्मन है,भाई का भाई ।।
सुग्रीव-गुह से मित्र नहीं,
नहीं, कोंई रघुनंदन है।
है,चौतरफा चित्कार यहाँ,
फैला क्रंदन ही क्रंदन है।।
सहस्त्रार्जुन से राजाओं का,
पुनः वही अंजाम चाहिए।
भू का दर्प बढ़ाने को अब,
फिर से परशुराम चाहिए।।
कृष्ण रूप में आकर माधव!
कर्म किसे सिखलाओगे?
मध्यम जन का गला घोंटकर,
मुफ्त-मुफ्त ही पाओगे।।
माखन-मिश्री नहीं मिलेगी,
मदिरा सब पर भारी है।
तब लूटी थी एक द्रौपदी,
अब सहमी हर नारी है।।
माँ रेणु और जमदग्नि का,
बालक वह बलवान चाहिए।
भू का दर्प बढ़ाने को अब,
फिर से परशुराम चाहिए।।
सुरेन्द्र खेड़े
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